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________________ पयडिबंधाहियारो २२३ णवरि अप्पप्पणो फोसणं कादव्वं । सत्तमीए मिच्छ अबंधगा खेत्तभंगो। १६२. तिरिक्खाणं धुविगाणं बंधगा सबलोगे। अबंधगा णस्थि । [थीणगिद्धितिय] अट्ठकसा० बंधगा सबलोगो, अबंधगा छच्चोइस० । सादासाद-बंधगा अबंधगा सव्वलोगो। दोण्णं पगदीणं बंधगा सबलोगो। अबंधगा णस्थि । एवं तिण्णिवे० दोयुग० पंचजादिछसंठाणं तसथावरादिणवयुगल-दोगोदं । मिच्छत्त-बंधगा विशेष छठी पृथ्वीमें देशोन, पाँचवीं पृथ्वीमें देशोन, चौथी में देशोन, तीसरीमें देशोन २१, दूसरीमें देशोन तथा पहली पृथ्वीमें लोकका असंख्यातवाँ भाग मिथ्यात्व,सासादन गुणस्थानमें स्पर्शन कहा है। मिश्र तथा अविरत सम्यग्दृष्टियोंके लोकका असंख्यातवाँ भाग बताया है । इस स्पर्शनको ध्यानमें रखकर भिन्न-भिन्न प्रकृतियों के बन्धकोंअनन्धकोंके विषयमें यथायोग्य योजना करनी चाहिए। सातवीं पृथ्वीमें-मिथ्यात्वके अबन्धकोंका क्षेत्रके समान भंग है । अर्थात् लोकका असंख्यातवाँ भाग है। विशेषार्थ-मिथ्यात्वके बन्धकोंका स्पर्शन सातों पृध्वियों में लोकका असंख्यातवाँ भाग भी कहा है । सातवीं पृथ्वीमें भाग देशोन भी स्पर्श है। . १९२. तिथंचोंमें-ध्रुव प्रकृतियोंके बन्धक सर्वलोकमें हैं; अबन्धक नहीं हैं। [स्त्यानगृद्धित्रिक ] अनन्तानुबन्धी ४ तथा अप्रत्याख्यानावरण ४ के बन्धकोंका सर्वलोक स्पर्शन है । अबन्धकोंकाक भाग है। विशेषार्थ-कषायाष्टकके अबन्धक देशसंयत तिर्यचोंके मारणान्तिक समुद्घातकी अपेक्षा अच्युत स्वर्गके स्पर्शनकी दृष्टि से पट भाग कहा है। स्वस्थान-स्वस्थान, वेदना समुद्भात, कषाय, मारणान्तिक समुद्धात तथा उपपाद पदोंसे अतीत कालमें तिर्यंच जीवों-द्वारा सर्वलोक स्पृष्ट है। क्योंकि वर्तमान कालके समान अतीत कालमें भी तिथंच जीवोंका सर्वलोक में अवस्थान पाया जाता है। विहारकी अपेक्षा अतीत कालमें तीन लोकोंका असंख्यातवाँ भाग, तियेग्लोकका संख्यातवाँ भाग और मनुष्य क्षेत्रसे असंख्यात गुणा क्षेत्र स्पष्ट है। शंका-असंख्यात समुद्रोंके त्रसजीवोंसे रहित होनेपर वहाँ विहार करनेवाले त्रस' जीवोंकी सम्भावना कैसे हो सकती है ? ____ समाधान नहीं, क्योंकि वहाँ पूर्व वैरी देवोंके प्रयोगसे विहार होने में कोई विरोध नहीं है । तत्थ पुव्व-वहरिय-देवाणं पओएण विहारे विरोहाभावादो ( खु० बं०टी० पृ० ३७५) साता, असाताके बन्धकोंके सर्वलोक है। दोनोंके बन्धकोंके सर्वलोक है ; अबन्धक नहीं है। तीन वेद, हास्य-रति, अरति-शोक, ५ जाति, ६ संस्थान, त्रस स्थावरादि : युगल १. "सत्तमाए पुढवीए णेरइएसुसासणसम्मादिट्ठि-सम्मामिच्छादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठोहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो।" -षटखं०,फोसू०२२। २. फोसणाणुगमेण गदियावादेण णिरयगदीए रइएहि सत्थाणेहि केवडियं खेत्त फोसिदं ? लोगस्स असंखेन्जदिभागो। माघादउववादेहि 'लोगस्स असंखेज्जदिभागो छच्चोइसभागा वा देसूणा। पढमाए पुढवीए रइया सत्थाणसमग्याद-- उववादपदेहि "लोगस्स असंखेजदिभागो विदियाए जाव सत्तमाए पुढवीए णेरइया सत्थाणेहि "लोगस्स असंखेज्जदिभागो। समुग्धाद-उववादेहि य केवडि : खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्ज दिभागो। एग वे तिण्णि चत्तारि पंच छ चोद्दसभागा वा देसूणा । -खु० ब०,सू०१-११ । ३ "असंजदसम्मादिट्ठि-संजदासंजदेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेजदिभागो, छच्चोहसभागा वा देसूणा।" -षट्खं०,फो०,सू० २७, २८ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001388
Book TitleMahabandho Part 1
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages520
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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