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________________ २२४ महाबंधे सव्वलोगो। अबंधगा सत्तचोदसभागो वा । तिण्णि आयुखेत्तभंगो। मणुसायुबंधगा लोगस्स असंखेजदिभागो सव्वलोगो वा। अबंधगा सबलोगो। चदुण्णं आयुबंधगा अबंधगा सव्वलोगो। णिरयगदिदेवगदिबंधगा छच्चोद्दसभागो। अबंधगा सव्वलोगो। तिरिक्ख-मणुसगदिबंधगा अबंधगा सव्वलोगो। चदुण्णं पगदीणं बंधगा सव्वलोगो। अबंधगा णस्थि । ओरालिय० बंधगा० सव्वलोगो । अबंधगा वारहचोइस० । वेउवि० बंधगा बारह-चोहसभागो वा । अबंधगा सबलोगो। दोण्णं पगदीणं बंधगा सचलोगो। अबंधगा णत्थि । ओरालि० अंगो० बंधगा अबंधगा सव्वलोगो। वेउवियअंगो. बंधगा बारहचोद्दसभागो। अबंधगा सव्वलोगो। दोण्णं पगदीणं बंधगा अबंधगा सबलोगो ।छस्संघ० दोविहा० दोसर० पत्तेगेण साधारण वि खेत्तमंगो। तथा दो गोत्रोंमें इसी प्रकार है।' मिध्यात्वके बन्धकोंका सर्वलोक है। अबन्धकोंकार भाग है।' विशेष-मारणान्तिक समुद्भातकी अपेक्षा मिथ्यात्वके अबन्धक सासादन सम्यक्त्वी जीवोंके १४ भाग स्पर्शन है। नरक-तियंच-देवायुका क्षेत्रके समान भंग है। मनुष्यायुके बन्धकोंका लोकका असं. ख्यातवाँ भाग, वा सर्वलोक भंग है। अबन्धकोंका सर्वलोक है। चारों आयुके बन्धकोंअबन्धकोंका सर्वलोक है। नरकगति, देवगतिके बन्धकोंका है। अबन्धकोंका सर्वलोक है। तियंचगति मनुष्यगतिके बन्धकों,अबन्धकोंका सर्वलोक है। चारों गतियोंके बन्धकोंका सर्वलोक है । अबन्धक नहीं हैं। औदारिक शरीरके बन्धकोंका सर्वलोक है, अबन्धकोंका भाग है । वैक्रियिक शरीरके बन्धकोंका १३ है, अबन्धकोंका सर्वलोक है। विशेष-वैक्रियिक शरीरके बन्धक तियंचोंका अच्युत स्वर्ग तथा सप्तम नरकके स्पर्शनकी अपेक्षा ११ भाग कहा है। __ औदारिक-वैक्रियिक शरीरके बन्धकोंका सर्वलोक है; अबन्धक नहीं है। औदारिक अंगोपांगके बन्धकों-अबन्धकोंका सर्वलोक है । वैक्रियिक अंगोपांगके बन्धकोंका १३ भाग है। अबन्धकोंका सर्वलोक है। दोनों प्रकृतियोंके बन्धकों-अबन्धकोंका सर्वलोक है। विशेष-जिस प्रकार वैक्रियिक शरीरके बन्धकोंका ३३ है, उसी प्रकार वैक्रियिक अंगोपांगका भी वर्णन है, किन्तु औदारिक शरीरके समान औदारिक अंगोपांगका वर्णन नहीं है । कारण, एकेन्द्रियोंमें औदारिक अंगोपांगके अभावमें भी औदारिक शरीर पाया जाता है, किन्तु वैक्रियिक शरीरके साथ वैक्रियिक अंगोपांगका सदा सम्बन्ध पाया जाता है । इस कारण इनका स्पर्शन तुल्य है तथा औदारिक शरीर एवं औदारिक अंगोपांगका स्पर्शन समान नहीं कहा गया है। छह संहनन, दो विहायोगति, दो स्वरका प्रत्येक तथा सामान्यसे क्षेत्रवत् भंग है १. तिरिक्खगदीए तिरिक्खा सत्याण-समुग्धाद-उववादेहि केवडियं खेतं फोसिदं ? सबलोगो -खु००,सू०१२,१३। २. "तिरिक्खेसु""सासणसम्माविट्ठीहि केवडियं खेत्तं फोसिदं? लोगस्स असंखेन. दिभागो, सत्तचोद्दसभागो वा देसूणा ।" -षटूखं०,फो०,स० २३, २५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001388
Book TitleMahabandho Part 1
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages520
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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