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________________ पंयडिबंधाहियारो २२५ आणुपुव्वि-गदिभंगो। परघादुस्सा० आदाउजो० बंधगा अबंधगा सव्वलोगो। पंचिंदिय तिरिक्ख०३-धुविगाणं बंधगा तेरह-चोद्दसभागा वा सबलोगो वा । अबंधगा णस्थि । थीणगिद्धि-तियं अट्ठकसा० बंधगा तेरहचोदस०, सबलोगो वा । अबंधगा छच्चोइसभागो वा । मिच्छ० बंधगा तेरहचोद्दस० सबलोगो वा। अबंधगा सत्तचोदसभागो वा देसूणा। सादबंधगा सत्तचोद्दसभागो वा सबलोगो वा । अबंधगा तेरह अर्थात् बन्धकों तथा अबन्धकोंका सर्वलोक स्पर्शन है। आनुपूर्वीमें गति के समान भंग है। विशेष-नरक देवानुपूर्वीके बन्धकोंके पर है । अबन्धकोंके सर्वलोक हैं। परघात, उच्छवास, आतप, उद्योतके बन्धकों-अबन्धकोंका सर्वलोक है। पंचेन्द्रियतियंच, पंचेन्द्रियतियंच-पर्याप्तक, पंचेन्द्रिय-तिर्यच-योनिमतीमें-ध्रुवप्रकृतियों के बन्धकोंका १३ भाग वा सर्वलोक है। अबन्धक नहीं है। विशेष-सातवीं पृथ्वीके नारकीने उपपाद द्वारा पंचेन्द्रियतिथंचोंकी भूमि मध्यलोकका स्पर्श किया, पश्चात् तियचरूपसे काल व्यतीत कर लोकाग्रमें जाकर बादर, पृथ्वी, जल, वनस्पतिकायिकोंमें जन्म धारण किया, इस प्रकार १३ राजू हुए। सप्तम नरकके नारकी जीवने जब तिर्यंच पंचेन्द्रिय पर्यायके निमित्त प्रस्थान किया, तब तिर्यंचायुका उदय आ जानेसे वह जीव तियंचसंज्ञाका पात्र हो गया। स्त्यानगृद्धित्रिक तथा अनन्तानुबन्धी आदि ८ कषायके बन्धकोंके १३ भाग, वा सर्वलोक है। अबन्धकोंके पर भाग है।' _ विशेष-यहाँ अबन्धक देशत्रती तियचोंका अच्युत स्वर्ग पर्यन्त उत्पादकी अपेक्षा १४ कहा है। मिथ्यात्वके बन्धकोंका २३ वा सर्वलोक है, अबन्धकोंका देशोन पर है। विशेषार्थ-मिथ्यात्वके अबन्धक सासादन गुणस्थानवर्ती तिर्यच च भाग स्पर्श करते हैं। धवलाकार सासादन सम्यक्त्वीका एकेन्द्रियमें उत्पाद न मानकर मारणान्तिक समुद्भात स्वीकार करते हैं। अतः लोकाग्रके एकेन्द्रियोंमें मारणान्तिक समुद्धातको अपेक्षा भाग कहा है। शंका-ये सासादन गुणस्थानवर्ती तिर्यंच सुमेरुगिरिके मूलभागसे नीचे मारणान्तिक समुद्भात क्यों नहीं करते ? समाधान-सभावदो- स्वभावसे वे ऐसा नहीं करते हैं । पर्यायार्थिक नयकी विवक्षासे वे नारकियों में अथवा मेस्तलसे अधोभागवर्ती एकेन्द्रिय जीवोंमें मारणान्तिकसमुदात नहीं करते हैं । (धवलाटीका पृ० २०५) । साताके बन्धकोंका च भाग वा सर्वलोक है, अबन्धकोंका १३ वा सर्वलोक है। १. "तिरिक्खेसु .."असंजदसम्मादिट्ठि-संजदासंजदेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो, छचोद्दसभागा वा देसूणा ।"-पटखं०,फो०,सू० २७-२८ । २. “सासणसम्मादिट्टीहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो, सत्तचोद्दसभागा वा देसूणा"-पट्खं०,फो०,सू० २४-२५ । ३. मारणंतिय-समुग्पा. दगदेहि सत्त-चोद्दमभागा देसूणा फोसिदा-२०४ ध० टीका,जीव० फो०। २९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001388
Book TitleMahabandho Part 1
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages520
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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