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________________ पयडिबंधाहियारो ५. दसणावरणीयस्य कम्मस्स णव पगदीओ। वेदणीयस्स कम्मस्स दुवे पगदीओ। मोहणीयस्स कम्मस्स अट्ठावीसपगदीओ। आयुगस्स कम्मस्स चत्तारि पगदीओ। पदार्थों का ग्रहण होता है। 'जब ज्ञान एक समयमें सम्पूर्ण जगत्का या विश्वके तत्वोंका बोध कर चुकता है, तब आगे वह कार्यहीन हो जायगा' यह आशंका भी युक्त नहीं है; कारण काल द्रव्य के निमित्नसे तथा अगुल्लघुगुणके कारण समस्त वस्तुओंमें क्षण-क्षणमें परिणमनपरिवर्तन होता है। जो कल भविष्यत् था, वह आज वर्तमान बनकर आगे अतीतका रूप धारण करता है। इस प्रकार परिवर्तनका चक्र सदा चलने के कारण ज्ञेयके परिणमनके अनुसार ज्ञानमें भी परिणमन होता है। जगत्के जितने पदार्थ हैं, उतनी ही केवलज्ञानकी शक्ति या मर्यादा नहीं है । केवलज्ञान अनन्त है । यदि लोक अनन्तगुणित भी होता, तो केवलज्ञानसिन्धुमें वह बिन्दुतुल्य समा जाता। इस केवलज्ञानकी प्राप्ति मुख्यतासे ज्ञानावरणके क्षयसे होती है। किन्तु ज्ञानावरणके साथ दर्शनावरण तथा अन्तरायका भी क्षय होता है । इन तीन घातिया कर्मोके पूर्व मोहका भय होता है । मोहक्षय हुए बिना कैवल्यकी उपलब्धि नहीं होती है । उज्ज्वल तथा उत्कृष्ट ज्ञानोंकी प्राप्तिके लिए मोहका निवारण होना आवश्यक है । अनन्त केवलज्ञानके द्वारा अनन्त जीव तथा अनन्त आकाशादिका ग्रहण होनेपर भी वे पदार्थ सान्त नहीं होते हैं । अनन्त ज्ञान अनन्त पदार्थ या पदार्थोंको अनन्त रूपसे बताता है, इस कारण ज्ञेय और ज्ञानको अनन्तता अबाधित रहती है। कोई-कोई व्यक्ति सोचते हैं, सर्वज्ञका भाव सकल पदार्थोंका अवबोध नहीं है, किन्तु केवल आत्माका ज्ञानप्राप्त व्यक्ति उपचारसे सर्वज्ञ कहलाता है, वास्तवमें सर्वज्ञ कोई नहीं है। _ यह धारणा भ्रान्तिपूर्ण है। जब ज्ञान झायोपशमिक अवस्थामें रहता है, तब वह अनेक पदार्थों का साक्षात्कार करता है; जब वह ज्ञान क्षायिक अवस्थाको प्राप्त करता है, तब उस ज्ञानको न्यून बताकर आत्माके ज्ञान रूपमें सीमित सोचना असम्यक् है । क्षायिक अवस्थामें आबाधक कारण दूर होनेपर ज्ञानकी वृद्धि स्वीकार न कर, उसे न्यून मानना अयोग्य है । शंकाकार यह सोचे कि किस कारणसे सुविकसित मति, श्रुत, अवधि तथा मन: | ज्ञानचतुष्टय क्षीण होकर कैवल्यकालमें आत्माके ज्ञानरूपमें सीमित हो जाते हैं। आत्माका स्वभाव ज्ञान है । प्रतिबन्धक सामग्रीके अभाव होनेपर ऐसी कोई भी सामग्री नहीं है जो आत्माकी सर्वज्ञताको क्षति पहुँचा सके, अतः जिनशासनमें आत्माकी सर्वज्ञताको काल्पनिक नहीं, किन्तु वास्तविक रूपमें मान्यता प्रदान की गयी है। इस प्रकार केवलज्ञानावरण कर्मको प्ररूपणा हुई। [दर्शनावरणादिकर्मप्ररूपणा ] ५. दर्शनावरण कर्मकी नव प्रकृतियाँ हैं-चक्षु-अचक्षु-अवधि केवल दर्शनावरण, निद्रा, निद्रा-निद्रा, प्रचला, प्रचला-प्रचला तथा स्त्यानगृद्धि । वेदनीय कर्मकी साता तथा असाता-ये दो प्रकृतियाँ हैं । मोहनीय कर्मकी अट्ठाईस प्रकृतियाँ हैं-अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ, अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ, प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ, संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ, सम्यक्त्व प्रकृति, सम्यक्त्व-मिथ्यात्व, मिथ्यात्व, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद। . नरक, मनुष्य, तिर्यंच, देवायु ये आयु कर्मकी चार प्रकृतियाँ हैं। पययरू Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001388
Book TitleMahabandho Part 1
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages520
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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