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________________ महाबंधे ४. यं तं केवलणाणावरणीयं कम्मं तं एयविधं । तस्स परूवणा कादव्वा भवदि । सयं भगवं उप्पण्णणाणदरिसी सदेवासुरमणुसस्स लोगस्स अगदि गदिं चयणोपवादं बंध मोक्खं इद्धिं जुंद्धिं अणुभागं तक्कं कलं मणो-माण ( णु) सिक-भुत कदं पड़िसेविदं आदिकम्मं अरहकम्मं सव्वलोगे सव्वजीवाणं सव्वभावे समं सम्मं जाणदि । एवं केवलणाणावर - णीयस कम्मस्स परूवणा कदा भवदि । ३२ [ केवलज्ञानावरणप्ररूपणा ] ४. जो केवलज्ञानावरणीय कर्म है, वह एक प्रकारका है । उसकी प्ररूपणा की जाती है । जिनेन्द्र भगवान्को केवलज्ञान तथा केवलदर्शनकी उपलब्धि हो चुकी है। वे स्वयं स्वर्गवासी देव, असुर अर्थात् भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिपी देव, तिर्यंच तथा मनुष्यलोककी गति, आगति, चयन, उपपाद, बन्ध, मोक्ष, ऋद्धि, युति ( जीवादि द्रव्यों का मिलना ), अनुभाग, तर्क, पत्रछेदनादि कला, मनजनित ज्ञान, मानसिक विषय, राज्यादि एवं महाव्रतादिका ' पालन करना, रूप भुक्ति, कृत, प्रतिसेवित ( त्रिकालमें पंचेन्द्रियों के द्वारा सेवित), आदि कर्म अरह् अर्थात् अनादि कर्मको सर्वलोक में, सर्वजीवोंके सर्वभावोंको युगपत् सम्यक् प्रकार से जानते हैं। विशेषार्थ - केवली भगवान् त्रिकालावच्छिन्न लोक- अलोकसम्बन्धी सम्पूर्ण गुण पर्यायों से समन्वित अनन्त द्रव्योंको जानते हैं । "ऐसा कोई ज्ञेय नहीं हो सकता है जो केवली भगवान् के ज्ञानका विषय न हो । ज्ञानका धर्म ज्ञेयको जानना है और ज्ञेयका धर्म है- ज्ञानका विषय होना । इनमें विषयविषयिभाव सम्बन्ध है । जब मति और श्रुतज्ञानके द्वारा भी यह जीव वर्तमानके सिवाय भूत तथा भविष्यत् कालकी बातोंका परिज्ञान करता है, तब केवली भगवान् के द्वारा अतीत, अनागत, वर्तमान सभी पदार्थोंका ग्रहण करना युक्तियुक्त ही है । प्रतिबन्धक ज्ञानावरण कर्मके क्षय होनेपर आत्मा सकल पदार्थोंका साक्षात्कार कर लेता है । जैसे प्रदीपका प्रकाशन करना स्वभाव है, उसी प्रकार ज्ञानका भी स्वभाव स्व तथा परका प्रकाशन करना है । यदि क्रमपूर्वक केवली भगवान् अनन्तानन्त पदार्थोंको जानते तो सम्पूर्ण पदार्थों का साक्षात्कार न हो पाता । अनन्तकाल व्यतीत होनेपर भी पदार्थों की अनन्त गणना अनन्त ही रहती । आत्माकी असाधारण निर्मलता होनेके कारण एक समयमें ही सकल १. "असुराश्च भवनवासिनः, देवामुरवचनं देशामर्पकमिति ज्योतिषां व्यन्तराणां तिरश्चां ग्रहणं कर्तव्यम् ।" - ध० टी० । २. "जीवादिदव्वाणं मेलणं जुदी । पत्तच्छेद्यादि कला' णाम । मनोजणिदं गाणं वा मणो वुच्चदे । रज्जमहव्त्रयादिपरिवालणं भुत्ती णाम । पंचहि इंदिएहि तिसुवि कालेसु जं सेविदं तं पडिसेविदं णाम । आद्यकर्म आदिकम्मं णाम, अत्थवं जणपज्जायभावेण सव्वेसि दव्वाणमादि जाणदि त्ति भणिदं होदि । रहः अन्तरम् । अरहः अनन्तरम् । अरहः कर्म अरहस्कर्म तं जानाति । सुद्धदव्वट्टियणयविसएण सव्र्व्वसि दव्वाणमणादित्तं जाणदि त्ति भणिदं होदि ।" ध० टी०, प० १२७२ । ३. असुर व्यन्तरोंके भेदविशेषका ज्ञापक होते हुए भी यहाँ सुरोंसे भिन्न असुर इस अर्थ में प्रयुक्त हुआ है । इस कारण तिर्यंच भी असुर शब्दके द्वारा गृहीत हुए हैं । ध० टी० । ४. "सर्वद्रव्यपर्यायेषु केवलस्य ।" - त० सू० ११२९ । ५. " न खलु ज्ञस्वभावस्य कश्चिदगोचरोऽस्ति यन्न क्रमेत, तत्स्वभावान्तरप्रतिषेधात् । ज्ञो ज्ञेये कथमज्ञः स्यादसति प्रतिबन्धने । दाऽग्निदहको न स्यादसति प्रतिबन्धने ॥" - अष्टसह० पृ० ४६।५० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001388
Book TitleMahabandho Part 1
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages520
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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