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पडबंधाहियारो
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३. यं तं विपुलमदिणाणं तं छव्विधं-उज्जुगं मणोगदं जाणदि, उज्जुगं वचिगदं जादि, उज्जुगं कायगदं जाणदि, अणुज्जुगं मणोगदं जाणदि, एवं वचिगदं काय ( गदं ) च । एवं याव वत्तमाणाणं पि जीवाणं जाणदि । जहण्णेण जोजण धत्तं, उक्कस्सेण माणुसुत्तरसेलस्स अब्भंतरादो, णो बहिद्धा । जहण्णेण सत्तमवग्गहणाणि, उक्कस्सेण असंखेजाणि भवग्गहणाणि गदिरागर्दि पदुप्पादेदि । एवं मणपज्जवणाणावर ० कम्सस्स परूवणा कदा भवदि ।
विशेषार्थ - यदि वर्तमान भवको ग्रहण करते हैं तो तीन भव होते हैं । यदि वर्तमानको छोड़ दिया जाये, तो दो भव होते हैं । इस कारण दो भव या तीन भवसम्बन्धी कथनमें विरोधका सद्भाव नहीं रहता है । सात-आठ भवकी गति - आगति के विषय में भी यही समाधान है । वर्तमान भवको सम्मिलित करनेपर आठ भव, उसको छोड़नेपर सात भव होते हैं ।
३. जो विपुलमति मन:पर्ययज्ञान है, वह छह प्रकारका है । वह सरल मनोगत पदार्थको जानता है, सरल वचनगत पदार्थको जानता है, सरल कायगत पदार्थको जानता है, कुटिल मनोगत पदार्थको जानता है, कुटिल वचनगत पदार्थको जानता है, कुटिल कायगत पदार्थको जानता है । यह वर्तमान जीव तथा अवर्तमान जीवोंके अथवा व्यक्तमनवाले तथा अव्यक्त मनवाले जीवोंके द्वारा चिन्तित अचिन्तित सुख-दुःख लाभालाभादिको जानता है ।"
इसका क्षेत्र जघन्यसे योजन पृथक्त्व है । यह उत्कृष्टसे मानुषोत्तर पर्वत के अभ्यन्तर जानता है । बाहर नहीं जानता है ।
विशेषार्थ - मन:पर्ययज्ञानका क्षेत्र ४५ लाख योजन वर्तुलाकार न होकर विष्कम्भात्मक है, चौकोर रूप है । अत एव मानुषोत्तर पर्वत के बाहर के कोण में स्थित विषयों को भी विपुलमतिज्ञानवाला जानता है ।
कालकी अपेक्षा यह जघन्यसे सात आठ भव, उत्कृष्टसे असंख्यात भवोंकी गति आगतिका प्ररूपण करता है ।
विशेष - शंका- इस मन:पर्ययज्ञानावरण प्ररूपणा में मन:पर्ययज्ञानका निरूपण क्यों किया गया ? ज्ञानमें कर्मत्वका समन्वय कैसे होगा ?
समाधान- मन:पर्ययज्ञानावरणके द्वारा मन:पर्ययज्ञान आवृत होता है । यहाँ आवरण किये जानेवाले ज्ञानमें आवरण अर्थात् मन:पर्ययज्ञानावरणीय कर्मका उपचार किया गया है।
इस प्रकार मन:पर्ययज्ञानावरण कर्मकी प्ररूपणा की गयी ।
१. “चितियमचितियं वा अद्धवितियमणेयभेयगयं । ओहिं वा विउलमदी लहिऊण विजाणए पच्छा।" - गो०जी०, गा० ४४८ । त०रा०, पृ०५९ । २. " णरलोत्ति य वयणं विवकम्भणियामयं ण वट्टस्स । तम्हा तग्वणपदरं मणपज्जवखेत्तमुद्दिहं ॥" - गो० जी०, गा० ४५५ । ३. " दुगतिगभवा हुं अवरं सतट्टभवा हवंति उवकस्सं । अडणवभवा हु अवरमसंखेज्जं विउलउक्कस्सं ॥" - गो० जी०, गा० ४५६ ।
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