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________________ महाबंधे णामस्स कम्मरस बादालीसं बंध-पगदीओ। यं तं गदिणामं कम्मं तं चदुविधं-णिरयगदि याव देवगदि त्ति । या(य)था पगदिभंगो तथा कादव्यो । गोदस्स कम्मस्स दुवे पगदीओ। अंतराइगस्स कम्मस्स पंच पगदीओ । एवं पगदिसमुक्त्तिणा समत्ता । ६. जो सो सव्वबंधो णोसव्वबंधो णाम तस्स इमो दुवि०-ओघेण आदेसेण य । ओघे णाणंतराइगस्स पंच पग० किं सव्वबंधो पोसव्वबंधो ? [सव्वबंधो। ] दंसणाव० किं सव्वबंधो णोसव्वबंधो ? सव्वाओ पगदीओ बंधमाणस्स सव्वबंधो। तदणबंधमाणस्स नाम कर्मकी बयालीस बन्ध प्रकृतियाँ हैं-गति, जाति, शरीर, बन्धन, संघात, संस्थान, अंगोपांग, संहनन, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, आनुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, आताप, उद्योत, विहायोगति, बस-स्थावर, बादर-सूक्ष्म, पर्याप्त-अपर्याप्त, प्रत्येक-साधारण, स्थिर-अस्थिर, शुभ-अशुभ, सुभग-दुर्भग, सुस्वर-दुस्वर, आदेय-अनादेय, यश कीर्तिअयशःकीर्ति, निर्माण और तीर्थकर । इस नामकर्ममें जो गति नामका कर्म है, उसके चार भेद हैं-नरकगति, देवगति मनुष्यगति, तियचगति । इस प्रकार जिस प्रकृति के जितने भेद हैं, उतने भेद समझ लेना चाहिए। अर्थात् षट्खंडागम वर्गणाखंडान्तर्गत प्रकृति अनुयोगद्वार में जिस प्रकार कर्मोंकी उत्तर प्रकृतियोंका निरूपण किया गया है,तदनुसार यहाँ भी जानना चाहिए । विशेषार्थ-गति के सिवाय नामकर्मकी ये प्रकृतियाँ भी भेदयुक्त हैं। एकेन्द्रिय, दो इन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चौइन्द्रिय तथा पञ्चेन्द्रिय जाति । औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तैजस, कार्मण शरीर । औदारिकादि रूप पञ्च बन्धन तथा पंच संघात । समचतुरस्र, न्यग्रोधपरिमण्डल, कुब्ज, स्वाति, वामन, हुण्डक-संस्थान । औदारिक-शरीरांगोपांग, वैक्रियिक-शरीरांगोपांग, आहारक-शरीरांगोपांग । वज्रवृषभनाराच, वज्रनाराच, नाराच, अर्धनाराच, कीलित, असम्प्राप्तामृपाटिका-संहनन । शुक्ल, कृष्ण, नील, पीत, लाल वर्ण। सुगन्ध, दुर्गन्ध । खट्टा, मीठा, चिरपिरा, कटु, कषायला रस । ठंडा, गरम, स्निग्ध, रूक्ष, हलका, भारी, नरम, कठोररूप-स्पर्श । नरक-तियच-मनुष्य-देवगति-प्रायोग्यानुपूर्वी । प्रशस्त-अप्रशस्त विहायोगति । ये ६५ उत्तर प्रकृतियाँ हैं जो पिण्डरूपसे १४ कही गयी हैं। ६५ उत्तर भेदवाली पिण्ड प्रकृतियोंमें २८ भेदरहित अपिण्ड प्रकृति योंको जोड़नेपर नाम कर्मकी ९३ प्रकृतियाँ होती हैं। उच्चगोत्र,नीचगोत्रके भेदसे गोत्रकर्म दो प्रकारका है। दान-लाभ-भोग-उपभोग तथा वीर्यान्तराय ये अन्तरायकी पाँच प्रकृतियाँ हैं। सब प्रकृतियाँ १४८ होती हैं। विशेष—इन कर्म-प्रकृतियोंके विशेष भेद किये जायें, तो अनन्त भेद हो जाते हैं। __ इस प्रकार प्रकृति-समुत्कीर्तन समाप्त हुआ [ सर्वबन्धनोसर्वबन्धप्ररूपणा ] ६. जो सर्वबन्ध तथा नोसर्वबन्ध है, उसका ओघ अर्थात् सामान्य और आदेश अर्थात् विशेषसे दो प्रकार निर्देश होता है। ओघसे ५ ज्ञानावरण तथा ५ अन्तरायकी प्रकृतियोंका क्या सर्वबन्ध है या नोसर्वबन्ध ? [ इनका सर्वबन्ध होता है। ] विशेषार्थ-ज्ञानावरण अथवा अन्तरायके पांच भेदोंमें-से अन्यतमका बन्ध होनेपर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001388
Book TitleMahabandho Part 1
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages520
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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