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________________ पडबंधाहियारो ३०७ २७३. एवं पंचिदिय - तिरिक्ख ०३ । णवरि जोणिणीसु खड्गं णत्थि । सव्वअपजत्ताणं तसाणं सव्वे० (१) खयोवसम-पारिणामियं णत्थि । विगप्पा ओदइ० । २७४ एवं अणुद्दिस याव सव्वदृत्ति । २७५. सव्वएइंदिय सव्त्रविगलिंदिय- सव्व पंचकाय ० आहार० आहारमि० मदि० का उदय नहीं है; इससे एकेन्द्रियकी अपेक्षा औदयिक भाव कहा है। एकेन्द्रियके सिवाय देव. और नारकी भी संहननरहित पाये जाते हैं, उनकी अपेक्षा सम्यक्त्वत्रयकी दृष्टि से औपशमिक, क्षायिक तथा क्षायोपशमिक भाव भी अबन्धकों में कहे हैं । २७३. पंचेन्द्रिय तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तिर्यंचपर्याप्त तथा पंचेन्द्रिय योनिमती तिचों में इसी प्रकार जानना | इतना विशेष है कि योनिमती तिर्यंचों में क्षायिक भाव नहीं है । विशेष - तिर्यच स्त्री में क्षायिक भावके अभावका कारण यह है कि दर्शन मोहनीयका क्षपण मनुष्य गति में ही होता है और बद्धायुष्क क्षायिकसम्यक्त्वी जीवकी स्त्रीवेदी रूपसे उत्पत्ति नहीं होती । अतः स्त्रीतिर्यंच में क्षायिक भाव नहीं पाया जाता । ( ध० टी०, भावा० पृ० २१३ ) सर्व अपर्याप्त त्रसोंमें [औपशमिक, क्षायिक] क्षायोपशमिक तथा पारिणामिक नहीं है । [सर्व] विकल्पों में औदयिक भाव है । २७४. अनुदिश स्वर्ग से सर्वार्थसिद्धि पर्यन्त इसी प्रकार है । विशेषार्थ - अनुदिश आदिसे लेकर सर्वार्थसिद्धि विमानवासी देवों में सभी सम्यग्दृष्टि होते हैं । उनके औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक भाव भी है। इसपर धवलाकार इन शब्दों में प्रकाश डालते हैं- "जैसे वेदक सम्यग्दृष्टि देवों के क्षायोपशमिक भाव, क्षायिक सम्यग्दृष्टि देवोंके क्षायिक भाव और उपशम सम्यग्दृष्टि देवों के पशमिक भाव होता है । शंका-अनुदिश आदि विमानोंमें मिध्यादृष्टि जीवोंका अभाव होते हुए उपशम सम्यग्दृष्टियोंका होना कैसे सम्भव है, क्योंकि कारणका अभाव होनेपर कार्यकी उत्पत्तिका विरोध है । समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि उपशम सम्यक्त्वके साथ उपशम श्रेणीपर चढ़ते और उतरते हुए मरणकर देवोंमें उत्पन्न होनेवाले संयतों के उपशम सम्यक्त्व पाया जाता है । ( जी० भावा० टीका पृ० २१६ ) २७५. सर्व एकेन्द्रिय, सर्व विकलेन्द्रिय, सर्व पंचकाय, आहारक, आहारकमिश्र, १. खइयसम्मादिट्टीणं बद्धाउआणं त्योवेदएसु उपत्तीए अभावा । मणुसगइवदिरित्त सेसगईसु दंसणमोहणीयखवणार अभावादो च । - ध० टी०, पृ० २१३ । २. अणुदिसादि जाव सव्वट्टसिद्धिविमाणवासिय देवेसु असंजद सम्मादिट्ठित्ति को भावो ? ओवसमिओ वा खइओ वा खओवसमिओ वा भावो । -जी० भावा० सूत्र २८ । ३. आहारक, आहारक मिश्र में चार संज्वलन और सात नोकषायोंके उदय प्राप्त देशघाती स्पर्धकोंकी उपशम संज्ञा है; कारण पूर्णतया चारित्र के घातलेकी शक्तिका वहाँ उपशम पाया जाता है । उन्हीं ग्यारह चारित्र मोहनीयकी प्रकृतियोंके सर्वघाती स्पर्धकोंकी क्षय संज्ञा है; क्योंकि उनका उदय भाव नष्ट हो चुका है। इस प्रकार क्षय और उपशमसे उत्पन्न संयम क्षायोपशमिक है। पूर्वोक्त ग्यारह प्रकृतियोंके उदयकी ही क्षयोपशम संज्ञा है; कारण चारित्रके घातनेकी शक्तिके अभावकी ही क्षयोपशम संज्ञा है। इस प्रकार . क्षयोपशमसे उत्पन्न प्रमादयुक्त संयम क्षायोपशमिक है। -ध० टी०, भावाणु०, पृ० २२१ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001388
Book TitleMahabandho Part 1
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages520
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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