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________________ २८० सव्वाणं दव्वं । २३०. एवं कम्मइका० । णवरि थीणगिद्धि तिगं मिच्छ० अर्णताणु ०४ बंधगा सव्वद्धा, अबंधगा जह० एगसमओ, उक्कस्सेण आवलियाए असंखेजदिभागो । देवदि०४ तित्थयरं बंधगा जह० एस० । उक्क० संखेजसमया । अबंधगा सव्वद्धा । ओरालिय-बंधगा सव्वद्धा । अबंधगा जह० एगसमओ । उक्कस्सेण संखेजसमया । महाबंचे २३१. वेविकायजोगिस्स देवोघं । वेउच्चियमिस्स ० धुविगाणं बंधगा जहणेण अंतोमुहुत्तं । उक्कस्सेण पलिदोवमस्स संखेजदिभागो । अबंधगा णत्थि । थीणगिद्वितिगं मिच्छत्त अनंताणुबंधि०४ बंधगा- अबंधगा जहणणेण अंतोमुडुतं, उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो । णवरि मिच्छत्त-अबंधगा जहणणेण एगसमओ । दोवेदणीय-बंधगा - अबंधगा जहण्णेण एगसमओ, उकस्सेण पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो । दोष्णं बंधगा जहण्णेण अंतोमुहुत्तं, उकस्सेण पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो । अबंधगा णत्थि । एवं तिष्णं वेदाणं दोष्णं युगलाणं दोगदि-दोजादि - छस्संठाणदोपुव्वितसथावरादि-पंच- युगल-दो गोदाणं च । ओरालि - अंगोवंग छस्संघडण - प्रकार सर्व प्रकृतियोंका जानना चाहिए । २३०. कार्मण काययोगियोंमें - इसी प्रकार जानना चाहिए। विशेष यह है कि स्त्यानद्धित्रिक, मिथ्यात्व अनन्तानुबन्धी ४ के बन्धकोंका सर्वकाल है । अबन्धकोंका' जघन्यसे एक समय, उत्कृष्टसे आवलीका असंख्यातवाँ भाग है । देवगति ४, तीर्थंकर के बन्धकका जघन्यसे एक समय, उत्कृष्टसे संख्यात समय है । अबन्धकोंका सर्वकाल है । औदारिक शरीर बन्धकोंका सर्वकाल है । अबन्धकोंका जघन्य एक समय, उत्कृष्ट संख्यात समय है । २३१. वैक्रियिक काययोगियों में देवोंके ओघवत् जानना चाहिए। वैक्रियिक मिश्र काययोगियों में ध्रुव प्रकृतियों के बन्धकों का काल जघन्य से अन्तर्मुहूर्त है । उत्कृष्टसे पल्य के असंख्यातवें भाग है अबन्धक नहीं हैं । स्त्यानगृद्धित्रिक, मिथ्यात्व अनन्तानुबन्धी चारके बन्धकों, अबन्धकोंका काल जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्टसे पल्य के असंख्यातवें भाग है। विशेष यह है कि मिथ्यात्व के अबन्धकोंका जघन्य काल एक समय है। दोनों वेदनीय के बन्धकों, अबन्धकोंका काल जघन्यसे एक समय, उत्कृष्टसे पल्यका असंख्यातवाँ भाग है। दोनों के बन्धकोंका काल जघन्यसे अन्तर्मुहूत, उत्कृष्टसे पल्यका असंख्यातवाँ भाग है : अबन्धक नहीं है । तीनों वेदों, हास्यादि दो युगलों, २ गति, २ जाति, ६ संस्थान, दो आनुपूर्वी, त्रस स्थावरादि पंचयुगल तथा दो गोत्रों में इसी प्रकार जानना चाहिए। औदारिक अंगोपांग, ६ संहनन, दो विहायोगति १. " सास सम्मादिट्ठी असंजदसम्मादिट्ठी केवचिरं कालादो होंति ? णाणाजीवं पडुच्च जहणणेण - एगसमयं उक्कस्सेण आवलियाए असंखेज्जदिभागो ।" षट्खं०, का०, २२०-२१ । २. "वेउब्विय मिस्सकायजोगीसु मिच्छादिट्ठी असंजदसम्मादिट्ठी केवचिरं कालादो होंति ? णाणाजीवं पडुच्च जहणेण अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो ।" - षट्खं०, का०, २०१ - २०२ । ३. " सासणसम्मादिट्ठी केवचिरं कालादो होंति ? णाणाजीवं पडुच्च जहणेण एगसमयं उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो ।” - पटखं०, का०, २०५-२०६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001388
Book TitleMahabandho Part 1
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages520
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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