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________________ १२८ महाबंधे ६३. उच्चा गोद तो णीचागोदस्स अबंधगो । णीचागोदं बंधतो उच्चागोदस्स अधगो । ६४. दाणंतराइगं बंधतो चदुष्णं अंतराइगाणं णियमा बंधगो । एवमण्णमण्णस्स बंधगो । ६५. एवं ओघभंगो मणुस ०३ पंचिंदि० तस तेसिं चैव पज्जत्ता पंचमण० पंचवचि० काजोगि ओरालिय० इत्थि - पुरिस-णपुंस० कोधादि०४ चक्खुदं० अचक्खुदं० भवसिद्धि० सण्णि आहारगित्ति, णवरि मणुस ० ३ ओरालिका० इत्थि० तित्यरं बांधतो देवगदि०४ णियमा बधगो । ६६. आदेसेण णेरइ० एइंदिय-विगलिंदिय-संजुत्त- आहारदुगं वेगुन्नियछक्क रिय- देवायुगं च अपज्जत्तगं च वज्जं सेसं वेदव्वं । एवं सव्व णेरइएसु । णवरि उत्थी याव सत्तमा त्ति तित्थयरं वज्जं । सत्तमाए मणुसायुगं णत्थि । ६७. तिरिक्खेसु - आहारदुगं तित्थयरं वज्ज, सेसं ओघं । एवं पंचिंदियतिरिक्ख०३ | पंचिंदिय-तिरिक्ख - अपज्जत्तगेसु वेगुव्वियछकं च णिरयदेवायुगं वज्ज ९३. उच्चगोत्रका बन्ध करनेवाला - नीच गोत्रका अबन्धक है । नीच गोत्रका बन्ध करनेवाला उच्चगोत्रका अबन्धक है । विशेष – दोनों गोत्र परस्पर प्रतिपक्षी हैं। अत: एक जीवके एक साथ दोनोंका बन्ध नहीं होता है । इस कारण नीचके बन्धकके उच्च अबन्ध होगा अथवा उच्च के बन्धकके नीचका अबन्ध होगा । ९४. दानान्तरायका बन्ध करनेवाला - लाभ, भोग, उपभोग तथा वीर्यान्तरायका नियमसे बन्धक है । एकका बन्ध करते समय अन्य चतुष्कका नियमसे बन्ध होता है । अर्थात् दानान्तराय के बन्ध होनेपर अन्य लाभान्तरायादिका नियमसे बन्ध होता है । ९५. मनुष्य, पर्याप्त मनुष्य, मनुष्यनी, पंचेन्द्रिय, त्रस तथा पंचेन्द्रियपर्याप्त, सपर्याप्त, ५ मनयोगी, ५ वचनयोगी, काययोगी, औदारिक काययोगी, स्त्री वेद, पुरुष वेद, नपुसंक वेद, क्रोधादि ४ कषाय, चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, भव्यसिद्धिक, संज्ञी, आहारक पर्यन्त इसी प्रकार अर्थात् ओघवत् जानना चाहिए । विशेष यह है कि मनुष्यत्रिक, औदारिक काययोग तथा स्त्रीवेद में तीर्थंकरका बन्ध करनेवाला देवगति, देवगत्यानुपूर्वी, वैक्रियिक, वैकियिक अंगोपांगका नियमसे बन्धक है । ९६. आदेश से - नारकियों में एकेन्द्रिय तथा विकलेन्द्रिय संयुक्त प्रकृति, आहारकद्विक, वैक्रियिकपटक, नरकायु-देवायु तथा अपर्याप्तकको छोड़कर शेष प्रकृतियोंको जानना चाहिए । इसी प्रकार सम्पूर्ण नारकियों में जानना चाहिए। विशेष, चौथीसे सातवीं पृथ्वी पर्यन्त तीर्थंकरका बन्ध छोड़ देना चाहिए। सातवीं पृथ्वी में मनुष्यायुका बन्ध नहीं है । ९७. तिर्यंचगति में - आहारकद्विक तथा तीर्थंकरका बन्ध नहीं होता है । शेषका ओघवत् वर्णन है। पंचेन्द्रिय तिर्यंच, पंचेन्द्रिय पर्याप्तक तिर्यंच, पंचेन्द्रिय योनिमती तिर्यंच में इस १. "म्मे तित्थं बंधदि वंसा मेघाण पुष्णगो चेव । छट्टोनिय मणुवाऊ ।" गो० क०गा० १०६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001388
Book TitleMahabandho Part 1
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages520
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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