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पय डिबंधाहियारो
१२९ सेसं तं चेव । एवं मणुस-अपज्जत्त-सव्वएइंदि० सम्वविगलिंदिय-पंचिंदिय-तस-अपज्जतसव्वपंचकायाणं । णवरि तेउ० वाउ० मणुसगदिचदुकं णत्थि ।
१८. देवेसु णिरयभंगो । णवरि एइंदिय-तिगं जाणिदव्वं । एवं भवणवासिय याव सोधम्मीसाण त्ति । णवरि भवणादि याव जोइसिया नि तित्थयरं णस्थि । सणक्कुमार याव सहस्सार त्ति णिरयोघं । आणद याव णवगेवेज्जा त्ति एवं चेव । णवरि तिरिक्खायुगं तिरिक्खग० तिरिक्खाणु० उज्जोवं णत्थि । अणुदिस याव सबट्ठा ति मिच्छत्तपगदीओ णस्थि । सेसं भाणिदव्यं ।
६६. ओरालि०मिस्से-णिरयगदितिगं देवायुगं आहारदुर्ग णत्थि। सेसं ओघभंगो। वेगुम्वियका० देवगदिभंगो। एवं वेगुव्वियमि० । णवरि आयुगं णस्थि । आहार० आहारमि० असंजद-पगदीओ आहारदुगं णस्थि । कम्मइगका० प्रकार जानना चाहिए।'
पंचेन्द्रिय तिर्यंच लब्ध्यपर्याप्तकोंमें-वैक्रियिकपटक, नरकायु, देवायुको छोड़कर शेष प्रकृतियोंका ओघवत् सन्निकर्ष जानना चाहिए । मनुष्यलब्ध्यपर्याप्तक, सर्व एकेन्द्रिय, सर्व विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय-त्रस-अपर्याप्तक तथा सम्पूर्ण पंच कार्योंमें भी इसी प्रकार जानना चाहिए । इतना विशेष है कि तेजकाय, वायुकायमें मनुष्यगतिचतुष्क नहीं है। ____९८. देवगतिमें नरकगतिका भंग है । विशेप, देवोंमें एकेन्द्रिय स्थावर आतापका बन्ध होता है । यह बात भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी, सौधर्म, ईशान स्वर्गपर्यन्त है। विशेष भवनत्रिकमें तीर्थकर नहीं होते हैं।
विशेषार्थ-देवोंका एकेन्द्रियोंमें भी जन्म होता है, किन्तु नारकी जीव मरण कर नियमसे संज्ञी, पर्याप्तक कर्मभूमिज मनुष्य या निर्यच होते हैं। इससे देवगति में विशेषता कही है। सानत्कुमारसे सहस्रार स्वर्गपर्यन्त नरकगनिके ओघ समान भंग हैं | आनतसे प्रैवेयकपर्यन्त इसी प्रकार हैं। विशेष-तिर्यंचायु, नियंचगति, नियंचानुपूर्वी तथा उद्योतका बन्ध नहीं होता है।
विशेष-आननादि स्वर्गवासी देवोंका तिथंच रूपसे उत्पाद नहीं होने के कारण नियंचायु आदि शतार चतुष्कका बन्ध नहीं कहा गया है।
अनुदिशसे सर्वार्थसिद्धि पर्यन्त मिथ्यात्व सम्बन्धी प्रकृतियाँ नहीं हैं, [ कारण वहाँ सभी सम्यक्त्वी ही होते हैं । ] अतः शेष प्रकृतियों को कहना चाहिए।
९९. औदारिकमिश्रकाययोगमें-नरकगतित्रिक, देवायु, आहारकद्विक नहीं है। शेष ११४ वन्ध योग्य प्रकृतियोंका ओघवत् वर्णन जानना चाहिए।
वक्रियिक काययोगमें-देवगतिके समान जानना चाहिए। वैक्रियिकमिश्रकाययोगमें भी इसी प्रकार जानना चाहिए। विशेष, यहाँ आयुके बन्धका अभाव है।
आहारक-आहारकमिश्रयोगमें-असंयतसम्बन्धी प्रकृतियाँ तथा आहारकद्विकके बन्धका अभाव है। आहारककाययोगमें ६३ और आहारकमिश्र काययोगमें ६२ बन्धयोग्य प्रकृतियाँ हैं।
१. "ओराले वा मिस्से । णहि सुरणिरयायुहारणिरयदुगं ।''-गो० कगा० ११६ ।
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