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महाधे
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स्थि । एवं चदुणोक० थिरादि - तिणि-युगलं । मिच्छत्त-उज्जोव-बंधगा अडणवचोद्दस ० | अपश्चक्खाणावरण०४ बंधगा अडणवचो० । अबंधगा दिवड्ढचोदसभागो । पच्चक्खाणावरण ०४ बंधगा अट्टणवचो० । अबंधगा खेत्तभंगो । इत्थ० पुरिस० बंधगा अट्ठचोदस० ।
are अपेक्षा वर्तमान कालकी दृष्टिसे लोकका असंख्यात भाग स्पर्शन है । अतीतकालकी अपेक्षा कुछ कम डेढ़ बटे चौदह १३ भाग स्पृष्ट हैं; क्योंकि मेरु मूलसे डेढ़ राजू मात्र ऊपर चढ़कर प्रभा पटलका अवस्थान है I
शंका- सानत्कुमार माहेन्द्र कल्पोंके प्रथम इन्द्रक विमानमें स्थित तेजोलेश्यावाले देवों में उत्पन्न करानेवर १३ राजूसे अधिक क्षेत्र क्यों नहीं पाया जाता ?
समाधान- नहीं, क्योंकि सौधर्म, कल्पसे थोड़ा ही ऊपर जाकर सानत्कुमार कल्लका प्रथम पटल अवस्थित है । ऐसा न माननेपर उपर्युक्त १३- राजू क्षेत्र में जो कुछ न्यूनना बतलायी है, वह बन नहीं सकती । ( खु० नं०, टीका पृ० ४३६-४४० )
स्त्यानगृद्धित्रिक, अनन्तानुबन्धी ४ के बन्धकों का प है । अबन्धकोंका ६४ है ।
विशेष - विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय, वैक्रियिक तथा मारणान्तिक पद परिणत मिश्र तथा अविरत सम्यक्त्वी जीवोंने पीत लेश्या में ६४ स्पर्शन किया है। विशेष, मिश्र गुणस्थानमें मारणान्तिक नहीं होता है । उपपादपरिणत अविरत सम्यक्त्वी जीवोंके १३ भाग
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होता है । ( २६६ )
साता,
असाताके बन्धकोंका १४, १४ है । दोनोंके बन्धकोंका ४४ है; अबन्धक नहीं है । हास्यरति, अरतिशोक, स्थिरादि तीन युगलमें इसी प्रकार जानना चाहिए । मिथ्यात्व तथा उद्योतके बन्धकोंके १४, ६४ है, अबन्धकोंके है । अप्रत्याख्यानावरण ४ के बन्धकोंके ६४, ६४ है; अबन्धकोंके १३ है ।
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विशेष – विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय, वैक्रियिक पदसे परिणत मिध्यात्वी तथा सासादन गुणस्थानवर्ती जीवोंने १४, मारणान्तिक समुद्घात परिणत उक्त जीवोंने ४ तथा उपपाद परिणत उन जीवोंने स्पर्श किया है । मिश्र तथा अविरत गुणस्थान में भी ६४, ६४ भाग है । विशेष, मिश्र में मारणान्तिक नहीं होता है । उपपाद परिणत अविरत सम्यक्त्वो जीवोंने स्पर्श किया है।
प्रत्याख्यानावरण ४ के बन्धकोंका १४, १४ है । अबन्धकोंका क्षेत्र के समान लोकका
१. तेउलेस्सियाणं सत्याणेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो । अट्ठचोसभागा वा देसूणा । समुग्धादगदेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो । अट्ठचोद्द सभागा वा सूना । उववादेहि केडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो । दिवड्ढ चोद्द सभागा वा देसूणा - खु० नं०, सू० १६४ - २०२ । २. सम्मामिच्छादिट्टि असंजद सम्मादिट्ठीहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो । अट्ठचोदसभागा वा देसूणा । - षट्खं०, फो० सू० १५२ - १५३ । ३. संजदासंजदेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो । दिवड्ढचोद्दसभागा वा देसूणा । - सू० १५४ - १५५ ।
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