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पयडिबंधाहियारो तिरिक्ख-मणुसायु० णqसगभंगो । चदुआयु-बंधगा अबंधगा सबलोगो । णिरयगदिदुर्ग वेगुम्वियदुगं बंधगा छच्चोद्दस-चत्तारिबे० । अबंधगा सव्वलोगो। ओरालि० बंधगा सव्वलोगो । अबंधगा छचत्तारि-बेचोद्दस ० । दोणं सरीराणं बंधगा सबलोगो । अबंधगा णस्थि । सेसाणं असंजदभंगो। तेउलेस्साए-पंचणा० छदंस० चदुसंज० भयदुगुं तेजाक० वण्ण०४ अगु०४ बादर-पजत्त-पत्तेय. णिमि० पंचंत० बंधगा अट्ठणवचो० । अबधगा णस्थि । थीणगिद्धितियं अणंताणुबंधि०४ बंधगा अढणवचो० । अबंधगा अट्ठचोदसभागो। सादासाद-बंधगा अट्ठणवचो० । दोण्णं बंधगा अट्ठणवचो० । अबंधगा का असंख्यातवाँ भाग है ;. अबन्धकोंका सर्वलोक है। तियंचायु, मनुष्यायुका नपुंसकवेदके समान भंग है । चारों आयुके बन्धकों,अबन्धकोंका सर्वलोक जानना चाहिए।
नरकगति, नरकानुपूर्वी, वैक्रियिक शरीर, वैक्रियिक अंगोपांगके बन्धकोंके कई, १४, १३ है: अबन्धकोंके सर्वलोक हैं।
विशेष-इन प्रकृतियों के बन्धक मनुष्य तथा तिथंच ही होंगे। देव तथा नारकी इन प्रकृतियोंका बन्ध नहीं करते हैं। सातवें नरकमें मारणान्तिककी अपेक्षा कृष्ण लेश्यामें कर है। नील लेश्यामें ५वीं पृथ्वीकी अपेक्षा उपपाद या मारणान्तिकके द्वारा ३ है। कापोत लेश्यामें तीसरी पृथ्वीको अपेक्षा ३ है। ..
औदारिक शरीरके बन्धकोंके सर्वलोक है। अबन्धकों के कहर, २४ है। दोनों शरीरोंके बन्धकों के सर्वलोक है, अबन्धक नहीं है। शेष प्रकृतियोंका असंयतोंके समान भंग है।
विशेष-औदारिक शरीर के अबन्धक नारकियोंमें मारणान्तिककी अपेक्षा सातवीं, पाँचवीं तथा तीसरी पृथ्वीकी दृष्टिसे, छ, के भाग कहा है।
तेजोलेश्यामें-५ज्ञानावरण,६ दर्शनावरण, ४ संज्वलन, भय-जुगुप्सा, तैजस-कार्मण, वर्ण ४, अगुरुलघु ४, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, निर्माण तथा ५ अन्तरायके बन्धकोंका है। अबन्धक नहीं है।'
विशेषार्थ-विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय और वैक्रियिक पद परिणत मिथ्यात्वी जीवोंने र भाग, मारणान्तिक समुद्घात परिणत जीवोंने ६ भाग स्पर्श किया है । ( २६५)
'खुद्दाबन्ध'टीकामें लिखा है-तेजो लेश्यावाले जीवों द्वारा स्वस्थान पदोंसे लोकका असंख्यातवाँ भाग स्पृष्ट है । अतीत कालकी अपेक्षा कुछ कम आठ बटे चौदह (६) भाग स्पृष्ट है । विहारवतस्वस्थानकी अपेक्षा कुछ कम - भाग स्पृष्ट है, क्योंकि विहार करते हुए तेजोलेश्यावाले देवों के इतना स्पर्शन पाया जाता है।
समुद्घातकी अपेक्षा इस लेश्यावाले जीवों के द्वारा लोकका असंख्यातवाँ भाग स्पृष्ट है। अतीत कालकी अपेक्षा वेदना, कषाय और वैक्रियिक पदोंसे परिणत तेजोलेश्यावाले जीवों-द्वारा भाग स्पृष्ट है, क्योंकि विहार करते हुए देवोंके ये तीनों पद सर्वत्र पाये जाते हैं। मारणान्तिक समुद्घातकी अपेक्षा कर भाग स्पृष्ट हैं, क्योंकि मेरु मूलसे दो राजुओंके साथ ऊपर सात राजु स्पशेन पाया जाता है ।
१. "तेउलेस्सिएसु मिच्छादिठि-सासणसम्मादिट्ठीहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो । अट्ठणवचोद्दसभागा वा देसूणा।" -षट् खं०,फो०,सू० १५१-१५२ ।
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