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________________ पयडिबंधाहियारो ३०६ को भावो ? ओदइगो भावो । अबंधा गत्थि । भवणवासि-वाण।तर जोदिसिगेसु खड्गं णस्थि । २७७. ओरालिमि० पंचणा० छदंस० बारसक० भयदु० तेजाक० वण्ण०४ अगु० उप० णिमि० पंचतराइगाणं बंधगात्ति को भावो ? ओदइगो भावो । अबंधगात्ति को भावो ? खइगो भावो। थीणगिद्धि०३ मिच्छत्त-अणंताणु०४ बंधगा ति को भावो ? ओदइगो भावो । अबंधगा त्ति को भावो ? खइगो वा खयोवसमिगो वा । गवरि मिच्छत्त-पारिणामियो वि अत्थि। सादबंधाबंधगा त्ति को भावो ? ओदइगो भावो । असाद-बंधगा त्ति को भावो ? ओदइगो भावो। अबंधगा ति को भावो ? ओदइगो वा, खइगो वा । दोण्णं बंधगा त्ति को भावो ? ओदइगो भावो । अबंधगा कौन भाव है ? औदायिक है। दोनों के बन्धकोंके कौन भाव है ? औदायिक है; अबन्धक नहीं है। भवनवासी, दाण व्यन्तर तथा ज्योतिषियोंमें क्षायिक भाव नहीं है। विशषार्थ-धवलाटीकामें यह शंका-समाधान दिया गया हैशंका-भवनत्रिक आदि देव और देवियों में क्षायिक भाव क्यों नहीं कहा ? । समाधान नहीं, क्योंकि भवनवासी वाणव्यन्तर, ज्योतिषी देव, द्वितीयादि छह पृथ्वियोंके नारकी, सर्वविकलेन्द्रिय, सर्वलब्ध्यपर्याप्तक और स्त्रीवेदियोंमें सम्यग्दृष्टि जीवोंकी उत्पत्ति नहीं होती है। तथा मनुष्यगतिके अतिरिक्त अन्य गतियों में दर्शन मोहनीयकी क्षपणाका अभाव है। इससे उक्त भवनत्रिक आदि देव-देवियोंमें क्षायिक भाव नहीं बतलाया गया। (जीव० ध०,टीका भावा० पृ. २१५) २७७. औदारिक मिश्र काययोगमें-५ ज्ञानावरण, ६ दर्शनावरण, १२ कषाय, भय, जुगुप्सा, तेजस, कार्मण, वर्ण ४, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण, तथा ५ अन्तरायोंके बन्धकोंके -कौन भाव है ? औदायिक भाव है । अबन्धकोंके कौन भाव है ? क्षायिक भाव है। विशेष-यहाँ ध्रुव प्रकृतियोंके अबन्धक कपाट समुद्धातयुक्त सयोगकेवलीकी अपेक्षा क्षायिक भाव कहा है। स्त्यानगृद्धित्रिक, मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चारके बन्धकोंके कौन भाव है ? औदायिक है। अबन्धकोंके कौन भाव है ? क्षायिक वा शायोपशमिक है। मिथ्यात्वके अबन्धकों में पारिणामिक भाव भी पाया जाता है।। विशेषार्थ-शंका-यहाँ औपशमिक भाव क्यों नहीं कहा गया ? समाधान-'चारों गतियों के उपशमसम्यक्त्वी जीवोंका मरण न होनेसे इस योगमें उपशमसम्यक्त्वका सद्भाव नहीं पाया जाता। शंका-उपशम श्रेणीपर चढ़ते-उतरते हुए संयतजीवोंका उपशमसम्यक्त्व के साथ मरण पाया जाता है। १. ओवसमिओ भावो एत्थ किण्ण परुविदो? ण, चउग्गा उवसमसम्मादिट्ठीणं मरणाभावादो ओरालियमिस्सम्हि उवसमसम्मत्तस्सुवलंभाभावा । उवसमसेढि चढंत-ओअरंत संजदाणमुवसमसम्मत्तेण मरणं, अत्थि त्ति चे सच्चमत्थि, किंतु ण ते उवसमसम्मत्तेण ओरालियमिस्सकायजोगिणो होंति, देवदि मोत्तूण तेसिमण्णत्थ उप्पत्तीए अभावा । -ध० टी०भा०,पृ०२१९ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001388
Book TitleMahabandho Part 1
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages520
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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