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[ भावारणुगम - परूवणा ]
२६६. भावानुगमेण दुविहो णिद्देसो । ओघेण आदेसेण य ।
[ भावानुगम ]
२६६. भावानुगमका ओघ तथा आदेशसे दो प्रकार निर्देश करते हैं
विशेषार्थ – यहाँ नाम, स्थापना, द्रव्य तथा भाव रूप चतुर्विध निक्षेप रूप भावों में से नोआगम भाव रूप भावनिक्षेपका अधिकार है। वीरसेन स्वामीने 'धवलाटीका में भावानुगमपर प्रकाश डालते हुए लिखा है- "पदेसु चदुसु भात्रेसु केण भावेण श्रहियारो ? णोश्रागमभावभावेण । "
शंका- यह कैसे जाना जाता है ?
समाधान - " णामादि- सेस भावेहि चोहस- जीवसमासाणमणप्पभूदेहि इह पोजणाभाषा " - चौदह जीव समासोंके लिए अनात्मभूत नामादि शेष भावनिक्षेपोंसे यहाँपर कोई प्रयोजन नहीं है । इससे ज्ञात होता है कि यहाँ नोआगमभाव - भावनिक्षेपसे ही प्रयोजन है ।
भावप्राभृतका ज्ञाता तथा उपयोग विशिष्ट जीव आगमभावरूप भावनिक्षेप है । नोआगमभाव - भावनिक्षेप औदयिक, औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक तथा पारिनामिक भेदसे पंच प्रकार है। कर्मोदयजनित औदयिक भाव है। कर्मोंके उपशमसे उद्भूत औपशमिक भाव है । कमाँके क्षयसे प्रकट होनेवाला जीवका भाव क्षायिक है । कर्मोदय होते हुए भी जो जीवके गुणका खण्ड ( अंश ) प्राप्त होता है, वह क्षायोपशमिक भाव है । पूर्वोक्त चार भावोंसे व्यतिरिक्त जीव तथा अजीवगत भाव पारणामिक नाम युक्त है।
ये पाँचों भाव जीव में पाये जाते हैं । पुद्गल द्रव्यों में औदायिक तथा पारिणामिक भाव पाये जाते हैं - "पोग्गलदव्वेसु श्रवश्य-पारिणामियाणं दोन्हं वेव भावाणमुवलंभा ।" धर्म, अधर्म, आकाश तथा काल द्रव्योंमें पारिणामिक भाव है ।
भावका क्या स्वरूप है, इसपर धवला टीकाकार इस प्रकार प्रकाश डालते हैं - "भावो नाम जीवपरिणामो तिव्व-मंद- णिज्जराभावादिरूवेण अणेयपयारो” ( जीवद्वाण भावाणुगमध० टी०, पृ० १८५, १८६ ) - भाव नाम जीवके परिणामका है। वह तीव्र, मंद, निर्जराभाव आदि के रूपसे अनेक प्रकारका है ।
अभव्य जीवोंके असिद्धता, धर्मास्तिकायमें गमनहेतुता, अधर्म द्रव्यमें स्थितिहेतुता, आकाश में अवगाहनत्व, कालमें परिणमनहेतुता आदि अनादि-निधन भाव हैं । भव्यमें असिद्धता, भव्यत्व, मिथ्यात्व असंयम आदि अनादि-सान्त भाव हैं । केवलज्ञान, केवलदर्शन - आदि सादि-अनन्त भाव हैं। सम्यक्त्व और संयमको धारण कर पीछे आये हुए जीवके मिथ्यात्व तथा असंयम आदि सादि-सान्त भाव हैं ।
१. " कम्मोदए संविजं जीवगुणक्खंडमुवलंभदि सो खओवसमिओ भावो णाम" - जी०, भाव० टीका, पृ० १८५ ।
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