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महाबंधे एइंदियपगदीणं एइंदियभंगो। आहारादि ( १ ) ( आहार० ) ओघ । णवरि केवलि. भंगो णस्थि । अणाहार० कम्मइगभंगो । णवरि वेदणीयं साधारणेण ओघं ।
एवं फोसणं समत्तं
असंज्ञीमें-क्षेत्रके समान भंग है। विशेष, एकेन्द्रियादि प्रकृतियोंका एकेन्द्रियके समान भंग है।'
आहारकोंमें ओघवत् भंग है ; किन्तु केवलिभंग नहीं है।
विशेषार्थ-यहाँ स्वस्थान उपपाद समुद्घात पदोंसे सर्वलोक स्पर्शन है। विहारवत्स्वस्थानसे पट भाग है। वैक्रियिक समुद्घातसे तीनों लोकोंका संख्यातवाँ भाग है। (खु० बं०टी० पृ. ४६१)
विशेष-मिथ्यादृष्टि जीवके सर्वलोक है, सासादनके लोकका असंख्यातवाँ भाग, , २३ भाग है। मिश्र तथा अविरत सम्यक्त्वीके लोकका असंख्यात वाँ भाग, पर है । देशसंयतके असंख्यातवाँ भाग वा ४ है। प्रमत्तसंयतसे सयोगि जिनपर्यन्त लोकका असंख्यातवाँ भाग है। विशेष, सयोगकेवलीके प्रतर तथा लोकपूरण समुद्घात आहारक अवस्थामें नहीं होते। ___अनाहारकोंमें- कार्मण काययोगवत् है। विशेष, वेदनीयका सामान्यसे ओघवत् भंग है।
इस प्रकार स्पर्शनानुगम समाप्त हुआ।
१. असण्णी मिच्छाइट्ठिभंगो 1-खु० बं०,सू० २७५ । २. “आहाराणुवादेण आहारएसु मिच्छादिट्ठि ओघ । सासणसम्मादिटिप्पहुडि जाव संजदासजदा ओघं । पमत्तसंजदप्पहुडि जाव सजोगिकेवलीहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेजदिभागो।" -षट्खं०,फो०सू० १८१-१८३ । ३. "अनाहारकेषु मिध्यादृष्टिभिः सर्वलोक: स्पृष्टः । सासादनसम्यग्दृष्टिभिर्लोकस्यासंख्येयभागः, एकादश चतुर्दशभागा पा देशोनाः। सयोगकेवलिनां लोकस्यासंख्येयभागः सर्वलोको वा । अयोगकेवलिनां लोकस्यासंस्वेयभागः ।" -स०सि०१-८। "अणाहारएसु कम्मइयकायजोगिभंगो । णवरि विसेसो। अजोगिकेवलीहि केवडिय सेत फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो।" -सू०१८४-१५५। अणाहारा केवडियं खेतं फोसिदं ? सभालोगो वा -खु० बं०,सू० २७८-२७९ ।
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