SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 396
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पयडिबंधाहियारो २१५. सम्मामिच्छादिट्टि धुविगाणं बंधगा अठ्ठ-चोद्दस०। अबंधगा णत्थि । देवगदि०४ बंधगा खेत्तं-भंगो। अबंधगा अठ्ठ-चोदसभागो । मणुसगदिपंचगं बंधगा अट्ठ-चोद्दस० । अबंधगा वेत्तभंगो। सेसाणं पत्तेगेण बंधगा अबंधगा अट्ठ-चोद्दसभागो । साधारणेण धुविगाणं भंगो : सण्णी मणजोगिभंगो। असण्णी खेत्तभंगो : णवरि हैं। अतः मिथ्यात्वमें आकर सासादन गुणस्थानके साथ उत्पत्तिका विरोध है (खु. बंक,टीका पृ० ४५५-४५७) । २१५. सम्यग्मिथ्यादृष्टिमें-धूव प्रकृतियोंके बन्धकोंका है ; अबन्धक नहीं है। विशेषार्थ-सम्मग्मिय्यादृष्टि जीव स्वस्थान पदोंसे लोकका असंख्यातवाँ भाग वर्तमानकी अपेक्षा स्पर्श करते हैं । अतीतकी अपेक्षा मिश्रगुणस्थानवाले जीवोंने विहारवत्स्वस्थानसे देशोन कर भाग स्पर्श किया है। इनके समुद्घात तथा उपपादपद नहीं होते । क्योंकि इस गुणस्थानमें मरणका अभाव है। शंका-वेदना, कषाय और वैक्रियिक समुद्घातोंकी यहाँ प्ररूपणा क्यों नहीं की गयी ? समाधान नहीं, क्योंकि उनकी प्रधानता नहीं है। विशेष-विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय तथा वैक्रियिक समुद्घातकी अपेक्षा मेरुतलसे ऊपर ६ राजू तथा नीचे दो राजू , क भाग है । (ध० टी०,फो० पृ० १६७) देवगति ४ के बन्धकों के क्षेत्रके समान भंग है। अबन्धों के 4 है। मनुष्यगति ५ के बन्धकोंके पर है । अबन्धकोंके क्षेत्रके समान है। शेष प्रकृतियों के प्रत्येकसे बन्धकों, अबन्धकोंका है । सामान्य से ध्रुव प्रकृतियोंका भंग है। संज्ञीमें-मनोमागियों का भंग है। विशेषार्थ-संज्ञी जीवोंने स्वस्थानकी अपेक्षा लोकका असंख्यातवाँ भाग, विहारवत्स्वस्थानसे देशोन बट भाग स्पर्श किया है। समुद्धातकी अपेक्षा लोकका असंख्यातवाँ भाग स्पर्श किया है। अतीत कालमें वेदना, कषाय तथा वैक्रियिक समुद्घातोंकी अपेक्षा देशोन र भाग स्पृष्ट है । सर्वलोक स्पृष्ट है। यह कथन मारणान्तिककी अपेक्षा है। त्रसकायिक संज्ञी जीवोंमें मारणान्तिक करनेवाले संज्ञी जीवोंकी अपेक्षा देशोन १३ भाग स्पृष्ट है। उपपादकी अपेक्षा लोकका असंख्यातवाँ भाग अथवा अतीतकालकी दृष्टिसे सर्वलोक स्पृष्ट है। संज्ञी जीवोंमें उत्पन्न हुए असंज्ञी जीवोंके सर्वलोक स्पर्श पाया जाता है। किन्तु संज्ञियोंमें उत्पन्न हुए असंज्ञी जीवोंका स्पर्शन ११ भाग है। सम्यक्त्वी संज्ञियोंका उपपाद क्षेत्र भाग है। १. सासणसम्माइट्ठी सत्थाणेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो । अदुचोहसभागा वा देसूणा । समुग्धादेहि केवडियं खेतं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो । अट्ठ-बारह बोहरभागा बा देणा। उववादेहि केवडियं खेत्तं फोसिदें? लोगस्स असंखेज्जदिभागो । एक्कारहचोद्दसभागा वा देसूणा -खु. बं० सू० २५१-२५६ । २. सम्मामिच्छाइट्ठीहि सत्थाणेहि केवडियं खेत फोसिदं ? लोगस्स असंखेजदिभागो । अट्ठचाद्दसभागा वा देसूणां । समुग्धाद उववादं णस्थि । -खु० बं०,सू० २६०-२६३ । समुग्धाद उववाद पत्थि। कुदो ? सम्मामिच्छत्त- गुणेण मरणाभावादो वेयण-कसाय-वेउब्वियसमुग्घादाण त्थ परूवणं किण्ण कंदं ? ण, तैसि पहाणत्ताभावादो। -खु० बं०, टी० पृ० ४५८ । ३. सणियाणुवादेण सणी सत्थाणेहि केवडिय खेत्तं फोसिदं? लोगस्स असंखेज्जदिभागो। अटूचोइसभागा वा देसूणा फोसिदा। समुग्घादेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं? लोगस्स असंखेज्जदिभागो, अट्रचोदसभागा वा देसूणा सवलोगो वा। उववादेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं? लोगस्स असंखेज्जदिभागो, सव्वलोगो वा। -खु० बं०,सू० २६५-२७४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001388
Book TitleMahabandho Part 1
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages520
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy