________________
२३०
महाबंधे अंगो० छस्संघ० मणुसाणु० आदाउजो० (१) दोविहा० [तस] सुभग-सुस्सर-आदेज० उच्चागोदं च। णqसगवेद-भंगो तिरिक्खगदि-एइंदियजादि हुंडसंठाण-तिरिक्खाणुपुवि-थावर-पञ्जत्तापज. पनेग-साधारण-भग-दूसर-अणादेज-णीचागोदं च । दोआयु० छस्संघ० दोविहा० दोसर० बंधगा खेत्तभंगो। अबंधगा लोगस्स असंखेजदिभागो, सबलोगो वा। गदि-जादि-संठाण-आणुपुग्वि-तसथावरादिसत्तयुगलदोगोदाणं बंधगा लोगस्स असंखेजदिभागो, सव्वलोगो वा। अबंधगा णस्थि । परघादुस्साणं बंधगा अबंधगा लोगस्स असंखेजदिभागो, सव्वलोगो वा । उज्जोवस्स बंधगा सत्तचोद्दसभागो वा । अबंधगा लोगस्स असंखेजदिभागो सव्वलोगो वा । एवं बादरजसगित्ति । तप्पडिपक्खं सुहुमं अञ्जसगित्ति ।
१६४. एवं मणुसापंजत्त० सव्वविगलिंदिय-पंचिंदिय-तस-अपजत्त-बादरपुढवि० आउ० तेउ० वाउ० बादरवणप्फदि-पत्तेय-पज्जत्ता। णवरि बादरवाउपजत्ते जं हि लोगस्स असंखेजदिभागो तं हि लोगस्स संखेजदिभागो कादव्वो। मणुस०३-पंचणा०
चार जाति, हुण्डक विना ५ संस्थान, औदारिक अंगोपांग, ६ संहनन, मनुष्यानुपूर्वी, आतप, उद्योत, (?) २ विहायोगति, [त्रस ] सुभग, सुस्वर, आदेय, उच्चगोत्रका स्त्रीवेदके समान भंग है।
विशेष-उद्योतका वर्णन आगे आया है, अतः यहाँ आतापके साथ उद्योतका पाठ अधिक प्रतीत होता है।
तियंचगति, एकेन्द्रिय जाति, हुण्डक संस्थान, तिर्यंचानुपूर्वी, स्थावर, पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येक, साधारण, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय, नीचगोत्रका नपुंसकवेदके समान भंग है । दो आयु, ६ संहनन, २ विहायोगति, दो स्वरके बन्धकोंका क्षेत्रके समान भंग है अर्थात् सर्वलोक है ।
· विशेषार्थ-दो आयु, छह संहनन तथा दोविहायोगतिका पहले वर्णन आ चुका है कि उनमें स्त्रीवेद के समान भंग है । उनका फिरसे उल्लेख होना चिन्तनीय है।
अबन्धकों के लोकका असंख्यातवाँ भाग वा सर्वलोक भंग है । गति, जाति, संस्थान, आनुपूर्वी, त्रस-स्थावरादि सप्त युगल, २ गोत्रके बन्धकोंका लोकका असंख्यातवाँ भाग वा सर्वलोक है। अबन्धक नहीं हैं। परघात, उच्छ्वासके बन्धकों-अबन्धकोंका लोकका असंख्यातवाँ भाग वा सर्वलोक भंग है। उद्योतके बन्धकोंका छ, अबन्धकोंका लोकका असंख्यातवाँ भाग वा सर्वलोक है। बादर, यशःकीर्ति इसी प्रकार है । सूक्ष्म और अयशःकीर्तिमें इनका प्रतिपक्षी अर्थात् बन्धकोंका लोकका असंख्यातवाँ भाग वा सर्वलोक है, अबन्धकोंका
१९४. लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य, सर्व विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय अपर्याप्तक, त्रस-अपर्याप्तक, बादर-पृथ्वी-जल-तेज-वायु-बादरवनस्पति प्रत्येक-पर्याप्तकोंमें इसी प्रकार भंग है। विशेष, बादरवायुकायिक पर्याप्तकोंमें जहाँ लोकका असंख्यातवाँ भाग है, वहाँ लोकका संख्यातवाँ भाग जानना चाहिए।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org