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महाबंधे
बंधगा केत्तिया ? अणंता। अबंधगा णत्थि । तिण्णि-आयु० वेउब्धियछक्कं बंधगा केत्तिया ? असंखेजा । अबंधगा अणंता । एवं वेदणीय-भंगो सव्वाणं परियत्तमाणियाणं । णवरि चदुआयु-दो अंगो० छस्संघ ० परघादुस्सा० दोविहा० दोसर० बंधगा अबंधगा केत्तिया ? अणंता। एवं पंचिंदिय-तिरिक्ख०३ । णवरि असंखेज कादव्वं ।
१७७. पंचिंदिय-तिरिक्ख-अपजत्तेसु-धुविगाणं बंधगा असंखेजा। अबंधगा णत्थि । सेसाणं पंचिंदिय-तिरिक्खभंगो। एवं सव्वविगलिंदिय-सव्वपुढवि० आउ० तेउ० वाउ० बादरवणप्फदिपत्तेय । एइंदिय-वणप्फदि-णियोदाणं एवं चेव । णवरि अणंतं कादव्यं । णवरि मणुसायुबंधगा अबंधगा असंखेजा।
१७८. मणुसेसु-पंचणा० णवदंस० मिच्छत्त० सोलसक० भयदु० तेजाक० अबन्धक कितने हैं ? अनन्त हैं। दोनों वेदनीयके बन्धक कितने हैं ? अनन्त हैं ; अबन्धक नहीं हैं। तीन आयु ( तियचायुको छोड़कर ), वैक्रियिकपटक ( देवगति, देवानुपूर्वी, नरकगति, नरकानुपूर्वी, वैक्रियिक शरीर, वैक्रियिक अंगोपांग ) के बन्धक कितने हैं ? असंख्यात हैं ; अबन्धक अनन्त हैं।
विशेष-आयुत्रिकमें यदि तिर्यंचायु सम्मिलित की जाती, तो बन्धक असंख्यात न होकर अनन्त हो जाते, अतः आयुत्रिकको नियंचायु विरहित समझना चाहिए।
इस प्रकार सर्व परिवर्तमान प्रकृतियोंमें वेदनीयके समान भंग समझना चाहिए। विशेष यह है कि चार आयु, दो अंगोपांग, ६ संहनन, परघात, उच्छ्वास, दो विहायोगति, दो स्वरके बन्धक-अबन्धक कितने हैं ? अनन्त हैं।
पंचेन्द्रिय तिर्यंच, पंचेन्द्रिय पर्याप्तक तिर्यंच तथा पंचेन्द्रिय योनिमती तिर्यंचमें इसी प्रकार समझना चाहिए । इतना विशेष है कि यहाँ अनन्तके स्थानमें 'असंख्यात' को ग्रहण करना चाहिए।
१७७. पंचेन्द्रिय-तियंच-लब्ध्यपर्याप्तकोंमें-ध्रुव प्रकृतियोंके बन्धक असंख्यात हैं अबन्धक नहीं हैं। शेष प्रकृतियोंमें पंचेन्द्रिय-तियंचोंके समान भंग समझना चाहिए । सम्पूर्ण विकलेन्द्रिय, सम्पूर्ण पृथ्वीकायिक, अपकायिक, तेजकायिक, वायुकायिक, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकमें ऐसा ही जानना चाहिए । एकेन्द्रिय, वनस्पति निगोदमें भी इसी प्रकार है । विशेष यह है कि असंख्यातके स्थानमें यहाँ 'अनन्त' कहना चाहिए। विशेष, मनुष्यायुके बन्धक, अबन्धक असंख्यात हैं।
विशेष-यह कथन सामान्यकी अपेक्षा है। तेजकाय, वायुकायमें मनुष्यायुके बन्धाभावका विशेष नियम यहाँ भी लागू रहेगा।
१७८. मनुष्योंमें -५ ज्ञानावरण, ९ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कपाय, भय
१. पंचिदियतिरिक्ख - पंचिदियतिरिक्खपज्जत्त - पंचिंदियतिरिक्खजोणणी - पंचिदियतिरिक्ख - अपज्जत्ता दव्वपेमाणेण केवडिया? असंखेज्जा - खु० बंसू०१८, १६ । २. "मणुसगईए मणुस्सेसु मिच्छादिट्ठी दव्वपमाणेण केवडिया ? असंखेज्जा।" - पट्खं०, द० सू० ४० । "मणुसिणीसु मिच्छादिट्ठी दव्वपमाणे
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