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पयडिबंधाहियारो
१९७ वण्ण०४अगु० उप० णिमि० पंचंतरा० बंधगा असंखेजा। अबंधगा संखेजा सादासाद. बंधगा अबंधगा असंखेजा । दोणं पगदीणं बंधगा असंखेजा । अबंधगा संखेजा। एवं परियत्तमाणियाणं सव्वाणं । णवरि दोआयु वेउब्वियछक्क० । आहारंदुग-तित्थयराणं बंधगा संखेजा । अबंधगा असंखेजा। साधारणेण वेदणीयभंगो। छसंघ. दोविहा० दोसराणं बंधगा अबंधगा पत्तेगेण साधारणेण वि असंखेजा। परघादुस्सास-आदाउजोवाणं बंधगा अबंधगा असंखेजा। मणुसपज्जत्त-मणुसिणीसु सव्वे मंगा संखेजा।
१७६. देवेसु णिरयोघं । णवरि भवणवासि यात्र सोधम्मीसाणा त्ति । एइंदि०
जुगुप्सा, तैजस- कार्मण शरीर, वर्ण ४, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण तथा ५ अन्तरायोंके बन्धक असंख्यात, अबन्धक संख्यात हैं । साता-असाताके बन्धक, अबन्धक असंख्यात हैं।' दोनों प्रकृतियों के बन्धक असंख्यात हैं, अबन्धक संख्यात हैं। सम्पूर्ण परिवर्तमान प्रकृतियों में इसी प्रकार है। दो आयु तथा वैक्रियिकषटकके विषयमें विशेष है। आहारकद्विक तथा तीर्थकर प्रकृतिके बन्धक संख्यात हैं , अबन्धक असंख्यात हैं। सामान्यकी अपेक्षा वेदनीयके समान भंग है । ६ संहनन, दो विहायोगति, २ स्वरोंके बन्धक,अबन्धक प्रत्येक तथा सामान्यसे असंख्यात हैं । परघात, उच्छ्वास, आतप, उद्योतके वन्धक, अबन्धक असंख्यात हैं।
मनुष्यपर्याप्तक, मनुष्यनियों में सम्पूर्ण भंग संख्यात हैं।
विशेषार्थ खुद्दाबन्धमें मनुष्य पर्याप्त तथा मनुष्यनीके प्रमाणपर इस प्रकार प्रकाश डाला गया है-मणुस्सपजत्ता मणुसिणीओ दव्वपमाणेण केवडिया ? कोडाकोडाकोडोए उवरि कोडाकोडा-कोडाकोडीए हेढदो छण्हं वग्गाणमुवरि सत्तण्हं वग्गाणं हेतृदो" (सूत्र २८, २६ )मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनियाँ द्रव्यप्रमाणसे कितनी हैं ? कोड़ा-कोड़ाकोड़ीसे ऊपर और कोड़ाकोड़ा-कोड़ाकोड़ीके नीचे छह वर्गों के ऊपर व सात वर्गों के नीचे अर्थात् छठे और सातवें वर्गके बीचकी संख्या प्रमाण मनुष्य पर्याप्त व मनुष्यनियाँ हैं।
'धवलाटीकामें लिखा है यद्यपि इस प्रकार सूत्र में सामान्य रूपसे ही कहा है, तथापि आचार्य परम्परागत अविरुद्ध गुरूपदेशसे पंचम वर्गके घन प्रमाण मनुष्य-पर्याप्त राशि है। इस प्रकार ग्रहण करना चाहिए। उसका प्रमाण इस प्रकार है-७९२२८१६२५१४२६४३३७५६३५४ ३९५०३३६ । यह उनतीस अंक प्रमाण मनुष्य पर्याप्तकोंकी संख्या कही गयी है। (खुळं बं० टीका, पृ. २५८ ।
विशेष-यहाँ लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्योंका वर्णन नहीं हुआ है, अतः प्रतीत होता है कि उस विषयमें पंचेन्द्रियलब्ध्यपर्याप्तक तिय चोंके समान भंग होंगे।
१७९. देवगतिमें-नारकियोंके ओघवत् जानना चाहिए। भवनवासियोंसे लेकर
केवडिया ? कोडाकोडोए हेढदो छण्हं वग्गाणमुवरि सत्तण्हं वग्गाणं हेह्रदो। मणुसिणीसु सासणसम्माइट्ठिपहुडि जाव अजोगिकेवलित्ति दव्वपमाणेण केवडिया ? संखेज्जा।" - षट्खं०,द० सू० ४८-४९ । १. मणुसगदीए मणुस्सा म णुसअपज्जत्ता दन्वपमाणेण केवडिया ? असंखेज्जा । खु० बं०,सूत्र २२, २३ । २. "भवणवासियदेवेसु मिच्छाइट्टो दव्वपमाणेग केवडिया ? असंखेज्जा।" - षट्खं द. सू० ५७ , पृ. २७०.
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