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________________ पय डिबंधाहियारो २०६ असंखेज्जदिभागे, असंखेज्जेसु वा भागेसु वा सबलोगे वा । सादासाद-बंधगा अबंधगा केवडिखेत्ते ? सव्वलोगे। दोणं वेदणीयाणं बंधगा केवडिखेत्ते ? सबलोगे। अबंधगा केवडिखेते ? लोगस्स असंखेज्जदिमागे । एवं सेसाणं पत्तेगेण वेदणीय-भंगो। साधारणेण धुविगाणं भंगो। णवरि तिण्णि-आयु-वेउव्विय छक्क-आहारदुगं तित्थयरं बंधगा केवडिखते ? लोगस्स असंखज्जदिभागे। अबंधगा सबलोगे। चदु-आयु-दोअंगोवंग-छस्संघ दोविहायगदि-दोसराणं बंधगा अबंधगा केवडिखेत्ते ? सव्वलोगे। एवं परघादुस्साणं । एवं काजोगि-कम्मइग० भवसिद्धिया-अणाहारगाणं । णवरि कम्मइगस्स यं हि केवलिभंगो तं हि लोगस्स असंखेज्जेसु वा भागेसु सबलोगे वा । एवं अपेक्षा सर्वलोक क्षेत्र कहा है।' साता-असाताके बन्धक अबन्धक जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? सर्व लोकमें रहते हैं। दोनों वेदनीयके बन्धक कितने क्षेत्र में रहते हैं ? सर्वलोकमें। अबन्धक कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं। विशेष-दोनोंके अबन्धक अयोगी जिन हैं । उनकी अपेक्षा लोकका असंख्यातवाँ भाग कहा है। इसी प्रकार शेष प्रकृतियोका पृथक-पृथक् रूपसे वेदनीयके समान भंग जानना चाहिए। सामान्य रूपसे शेष प्रकृतियोंका ध्रुव प्रकृतिवत् भंग जानना चाहिए। विशेष, ३ आयु, वैक्रियिकषट्क, आहार कद्विक तथा तीर्थकर प्रकृतिके बन्धक कितने क्षेत्र में रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं । अबन्धक सर्वलोकमें रहते हैं। ४ आयु, २ अंगापांग, ६ संहनन, २ विहायोगति और २ स्वरोंके बन्धक, अबन्धक कितने क्षेत्र में रहते हैं ? सर्वलोकमें रहते हैं। इसी प्रकार परघात तथा उच्छ्वास प्रकृति में भी लगा लेना चाहिए। __ इसी प्रकार काययोगी, कार्मण काययोगी, भव्यसिद्धिकों तथा अनाहारकोंमें जानना चाहिए। विशेष यह है कि कार्मण काययोगीमें जो केवलीका भंग है, उसमें लोकका असंख्यात बहभाग अथवा सर्वलोकप्रमाण क्षेत्र जानना चाहिए। विशेषार्थ- कार्मण- काययोग चारों गतिसम्बन्धी विग्रहगति में, प्रतर-लोक-समुद्धात मुक्त केवलीके होता है, "कार्माणकाययोगः स्यात् स चतुर्गतिविग्रहकाले सयोगस्य प्रतरलोकपूरणकाले च भवति" [गो० जी०टी० १० ११२५, गा० ६८४] प्रतर समुद्रातमें लोकका असंख्यात बहुभाग, लोकपूरण समुद्रात में नामानुसार लोकपूर्णता होनेसे सर्वलोक क्षेत्र कहा है। १. पदरस मुग्धादे लोयस्स असंखेज्जेसु भागेसु अवट्ठाणं होदि । वादवलएसु जीवपदेसाणामभावादो । लोगपूरण समुग्वादे सबलोगे अवठ्ठाणं होदि ।-खु० ३११। २. "कम्मइयकायजोगिसु सजोगिवली केवडिखेते लोगस्स असंखेज्जेम भोगेस. सबलोगे वा।"-पटखं-ख० बं०४०.४२। म भवसिद्धिया अभवसिद्धिया सत्याणेण उयवादेण केवडिखेते? सबलोगे। अणाहाराकेवडिखेत्ते ? सव्वलोए।। १०७, १०८, १२३, १२४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001388
Book TitleMahabandho Part 1
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages520
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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