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________________ महाबंधे एक हस्तप्रमाण, सवांग सुन्दर, समचतुरस्र संस्थानयुक्त, हंसके समान धवल, रुधिर मांसादि सप्त धातुओंसे रहित, विष, अग्नि एवं शस्त्रादि समस्त बाधाओंसे मुक्त; वज्र, शिला, स्तम्भ, जल, व पर्वनमें-से गमन करने में दक्ष तथा मस्तकसे उत्पन्न हुए शरारसे तीर्थकरके पाद मूल में जानेका नाम आहारक समुद्भात है । 'गोम्मटसार' जीवकाण्ड में आहारक शरीरको असंहणणं' - संहननरहित कहा है, क्योंकि इस देहमें अस्थिबन्धन विशेषका असद्भाव है । जीवकाण्डमें यह भी कहा है कि निजक्षेत्र में केवली श्रुत केवलीका अभाव हो और सुदूर क्षेत्र में केवलिद्वय विद्यमान हों तथा तीर्थकर भगवान् के तपादि कल्याणकत्र य हो तब असंयम परिहार हेत. तज्ञानावरण तथा वीर्यान्तरायक क्षयोपशमकी मंदता होनेपर धर्मव्यानका विराधी श्रुत ( शास्त्र ) के अर्थमें सन्देह उत्पन्न हो, उस सन्देह निवारणार्थ तथा 'जिण-जिणधर-वंदणटुं' जिन तथा जिन-मन्दिरकी वन्दनार्थ आहारक शरीर उत्पन्न होता है।' यह शरीर अव्याघाती होता है। कदाचित् पर्याप्ति पूर्ण होनेपर आयु क्षय होनेसे इस शरीरधारी मुनिका मरण भी होना सम्भव है। आहारक तथा तैजस समुद्धात मनुष्यनीके नहीं होते ( मणुसिणीसु तेजाहारं णत्थि- खु० ब०) वेदनीय कर्मके निषेकोंकी बहुलता हो तथा आयुकी स्थिति अल्प हो,तब आयु कर्मके समान शेष कर्मोकी स्थिति करनेके लिए दण्ड, कपाट, प्रतर तथा लोकपूरणरूप केवलि समुद्धात होता है। जिसकी अपने विष्कम्भसे कुछ अधिक तिगुनी परिधि है ऐसे पूर्व शरीर के बाहल्यरूप अथवा पूर्व शरीरसे तिगुने बाहल्य रूप दण्डाकारसे केवलीके जीव प्रदेशोंका कुछ कम चौदह राजू फैलनेका नाम दण्डसमुद्धात है। दण्डसमुद्धातमें कथित बाहल्य और आयामके द्वारा वात-बलयसे रहित सम्पूर्ण क्षेत्र के व्याप्त करनेका नाम कपाटसमुद्धात है। केवली भगवान के जीव प्रदेशोंका वातवलयसे रुके हुए क्षेत्रको छोड़कर सम्पूर्ण लोकमें व्याप्त होने का नाम प्रतरसमुद्भात हैं । घनलोक प्रमाण केवली भगवानके जीव प्रदेशोंका सर्वलोकमें व्याप्त करनेको केवलिसमुद्धात कहते हैं। उपपाद एक प्रकारका है। वह भी उत्पन्न होने के पहले समयमें ही होता है । उपपादमें ऋजुगतिसे उत्पन्न हुए जीवोंका क्षेत्र बहुत नहीं पाया जाता है, क्योंकि इसमें जीवके समस्त प्रदेशोंका संकोच होता है ( संकोचिदासे सजीवपदेसादो )। इस प्रकार स्वस्थानके दो भेद, समुद्भातके सात भेद तथा एक उपपाद इन दश विशेषणोंसे यथासम्भव विशेषताको प्राप्त क्षेत्रका निरूपण किया गया है। ___ अबन्धक कितने क्षेत्रमें हैं ? लोकके असंख्यातवें भागमें अथवा असंख्यात भागों में वा सर्वलोकमें रहते हैं। विशेषार्थ-ज्ञानावरणादिके अबन्धक उपशान्त कषायादि गुणस्थानवी जीवोंका क्षेत्र लोकका असंख्यातवाँ भाग है। सयोगी जिनके प्रतर-समुद्भातकी अपेक्षा लोकके असंख्यात बहुभाग हैं । क्योंकि यहाँ वातवलयोंमें जीव प्रदेश नहीं पाये जाते । लोकपूरण समुद्रात की + - - १. आहारस्सुदएण य पमत्तविरदस्स होदि आहारं । असंजमपरिहरणटुं संदेहविणासणटुं च ।।२३५।। णियखेत्ते केवलिदुगविरहे णिक्कमणपहदिकल्लाणे। परखेते संवित्ते जिण-जिणधर वंदणटुं च ।।२३६।। -गो० जी० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001388
Book TitleMahabandho Part 1
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages520
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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