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पयडिबंधाहियारो
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बन्ध'सूत्र की टीकामें लोकको पंचविध कहा है - "एत्थ लोगो पंचविहो उड्ढलोगो अधोलोगो तिरियलोगो मणुसलोगो सामण्ण लोगो चेदि । एदेसिं पंचण्ह पि लोगाणं लोगग्गहणण गहणं कादव्वं" (पृ. ३०१) - यहाँ लोक ऊर्ध्वलोक, अधोलोक, तियंगलोक, मनुष्यलोक, सामान्य लोक इस प्रकार पंचभेदसहित है। लोकके ग्रहण करनेसे पाँचों लोकोंका ग्रहण करना चाहिए। मनुष्य लोकका तिर्यगलोकमें अन्तर्भाव होनेसे लोकत्रयकी मान्यताका सर्वत्र प्रचार है । धवलाटीकाकारने पंचविध लोकोंको लक्ष्य में रखकर तत्त्व प्रतिपादन किया हैं। तीनसौ तेतालीस घनराजू प्रमाण सामान्य लोक है । एकसौ छयानबे घनराजू प्रमाण अधोलोक है, एकसौ सैतालीस घनराजु प्रमाण ऊर्ध्वलोक है। एक लाख योजन ऊँचा, पूर्व पश्चिममें एक राजू चौड़ा तथा उत्तर दक्षिणमें सात राजू लम्बा तिर्यग्लोक है । पैंतालीस लाख योजन लम्बे तथा चौड़े और एक लाख योजन ऊँचे क्षेत्रको मनुष्यलोक कहा गया है।
इस पंच विधलोकमें जीवका संचार होता है। खुद्दाबन्ध क्षेत्रानुगम प्ररूपणामें स्वस्थान, समुद्घात तथा उपपादकी अपेक्षा क्षेत्रका कथन किया है । धवलाटीकामें यह महत्त्वपूर्ण तथा उपयोगी कथन किया गया है। स्वस्थान पद स्वस्थान-वस्थान तथा विहारवत्स्वस्थानके भेदसे दो प्रकार है। अपने-अपने उत्पन्न होने के ग्रामादिकोंकी सीमाके भीतर परिभ्रमण करनेको स्वस्थान-स्वस्थान कहते हैं । इससे बाह्य प्रदेश में घूमने को विहारवत्स्वस्थान कहते हैं।
नेत्रवेदना, शिरोवेदना आदिके द्वारा जीवोंके प्रदेशोंका उत्कृष्टतः शरीरसे तिगुने प्रमाण विसर्पणको वेदना समुद्भात कहते हैं। क्रोध, भय आदिके द्वारा जीवके प्रदेशोंका शरीरसे तिगुने प्रमाण (शरीर-तिगुण) प्रसर्पणको कषाय समुद्भात कहा है। वैक्रियिक शरीरके उदयवाले देव और नारकी जीवोंका अपने स्वाभाविक आकारको छोड़कर अन्य आकारसे रहनेका नाम वैक्रियिक समुद्भात है । अपने वर्तमान शरीरको नहीं छोड़कर ऋजुगति-द्वारा या विग्रहगति-द्वारा आगे जिसमें उत्पन्न होना है ऐसे क्षेत्र तक जाकर शरीरसे तिगुने विस्तारसे अथवा अन्य प्रकारसे (शरीरतिगुण-बाहल्केण अण्णहा वा) अन्तर्मुहूर्त तक रहनेको मारणान्तिक समुद्भात कहा है। मारणान्तिक समुद्धात निश्चयसे आगामी जहाँ उत्पन्न होना है, ऐसे क्षेत्रकी दिशाके अभिमुख होता है। अन्य समुद्धातोंमें दशों दिशाओंमें गमन पाया जाता है। जिसने आगामी भवकी आयु बाँध ली है, ऐसे बद्धायुष्क जीवके ही मारणान्तिक समुद्धात होता है। इस समुद्धात का आयाम अर्थात् विस्तार उत्कृष्टतः अपने उत्पद्यमान क्षेत्रके अन्त तक है, इतर समुद्धातोंमें यह नियम नहीं है ।।
तैजस शरीरके विसर्पण को तैजस समुद्धात कहते हैं। यह निस्सरणात्मक तथा अनिस्सरणात्मक भेदसे दो प्रकारका है। निस्सरणात्मक तैजसके प्रशस्त तैजस, अप्रशस्त तैजस ये दो भेद हैं । अप्रशस्त-निस्सरणात्मक तैजसशरीर समुद्धात बारह योजन लम्बा, नौ योजन विस्तारवाला सूच्यंगुल संख्यातवें भाग मोटाईवाला, जपापुष्पके समान लालवर्णवाला, भूमि
और पर्वतादिके दहन करने में समर्थ, प्रतिपक्षरहित, रोषरूप इन्धनवाला, बायें कन्धेसे उत्पन्न होनेवाला और इच्छित क्षेत्र प्रमाण विसर्पण करनेवाला होता है। जो प्रशस्त निस्सरणात्मक तैजसशरीर समुद्धात है, वह भी विस्तार आदिमें अप्रशस्त तैजसके हो समान है, किन्तु इतनी विशेषता है कि वह हंसके समान धवलवर्णवाला है । सीधे कन्धेसे उत्पन्न होता है। प्राणियोंपर अनुकम्पा के निमित्तसे उत्पन्न होता है । मारी रोग आदिके प्रशमन करने में समर्थ होता है। अप्रशस्त तैजसके विषयों में राजवार्तिक में लिखा है कि वह उग्र चारित्रवाले तथा अत्यन्त क्रुद्ध मुनिके निकलता है ( यतेरुप्रचारित्रस्यातिक्रुद्धस्य ) ।
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