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[ खेत्ताणुगम-परूवणा ]
१८६. खेत्ताणुगमेण दुविहो णिद्देसो ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण पंचणा० णवदंस० मिच्छत्त - सोलसक० भयदु० तेजाक० वण्ण०४ अगु० उप० णिमि० पंचतरागाणं बंधा ( बंधगा ) केवडिखचे ? सव्वलोगे । अबंधगा केवडिखे ते ? लोगस्स
[ क्षेत्रानुगम ]
क्षेत्रानुगम ओघ तथा आदेशसे दो प्रकार से निर्देश करते हैं ।
विशेषार्थ - जीवादि द्रव्योंका वर्तमान आवासस्थल क्षेत्र हैं । यह नामक्षेत्र, स्थापनाक्षेत्र, द्रव्यक्षेत्र तथा भावक्षेत्र के भेदसे चार प्रकारका है। यहाँ द्रव्यक्षेत्र से प्रयोजन है । इसके भेद तद्द्व्यतिरिक्त नोआगमका दूसरा भेद जो नोकर्मद्रव्य है, वह औपचारिक तथा पार मार्थिक भेदयुक्त है । धान्यादिक्षेत्र औपचारिक क्षेत्र हैं, आकाशद्रव्य पारमार्थिक नोकर्म तद्व्यतिरिक्त तो आगन क्रय-क्षेत्र है । वीरसेन स्वामीने धवलाटीका ( जीवद्वाण भाग ३ पृ० ७ ) में कहा है, "तत्थ श्रवयारियं णोकम्मदव्वखेत्तं लोगपसिद्धं सालिखेत्तं वीहिखेत्तमेवमादि । पारमत्थियं णोकम्मदव्वखेत्तं श्रागासदव्वं पदेसु खेतेसु केणं खेत्तेण पयदं णोश्रागमदो दव्वखेत्तेण पयदं । "
जिस प्रकार से द्रव्य अवस्थित है, उस प्रकार से उनको जानना अनुगम कहलाता है । क्षेत्र के अनुगमको क्षेत्रानुगम कहते हैं, "जधा दव्वाणि टिउदाणि तधावबोधो अणुगमो । खेत्तस्स श्रणुगमो खेत्ताणुगमो ।” निर्देशका अर्थ है प्रतिपादन करना अथवा कथन करना, "णिसो पशुपायणं कहणमिदि एयट्ठी " ( पृ०६ ) । जीवादि द्रव्य आकाशके जितने भागमें पाये जाते हैं, उसे लोक कहते हैं । उसके सिवाय अवशिष्ट आकाशको अलोकाकाश कहते हैं । इस क्षेत्रानुगमका लोकाकाशसे सम्बन्ध है । अलोकाकाशमें आकाशके सिवाय अन्य द्रव्योंका अभाव होने से प्रस्तुत प्ररूपणा में उससे प्रयोजन नहीं है । ' पंचास्तिकाय में कुन्दकुन्द स्वामीने इस अलोकाकाशको "अंतर्वादिरित्तं" अन्तरहित ( अनन्त ) कहा है । लोकाकाश तीन सौ तेंतालीस घन राजू प्रमाण कहा गया है ।
ओघसे - ५ ज्ञानावरण, ९ दर्शनावरण, मिध्यात्व, १६ कषाय, भय, जुगुप्सा, तैजसकार्मण', वर्ण ४, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण तथा ५ अन्तरायोंके बन्धक जीव कितने क्षेत्र में हैं ? सर्वलोक में ।
विशेषार्थ - लोक शब्दका अर्थ है "लोक्यते उपलभ्यन्ते यस्मिन् जीवादि द्रव्याणि स लोकः तद्विपरीतो लोकः ।" देशके भेदसे क्षेत्रके तीन भेद कहे हैं । वीरसेन स्वामीने लिखा है - "मंदर चूलियादो उवरिमुड्ढलोगो, मंदरमूलादो हेट्ठा अधोलोगो मंदर परिच्छिष्णो लोगो त्ति" ( जी० खे०, पृ० ६ ) - मंदराचल अर्थात् सुमेरु पर्वतकी चूलिकासे ऊपर ऊर्ध्वलोक हैं । मन्दरगिरिके मूलसे नीचेका क्षेत्र अधोलोक है । मन्दराचल से परिच्छिन्न मध्यलोक है । इस लोक-विभाजन में सुमेरु गिरिकी प्रधानताको लक्ष्य में रखकर आचार्य अकलंकदेव उसे लोकका मानदण्ड कहते हैं, “मेरुरयं त्रयाणां लोकानां मानदण्डः ( त० रा० ) 'खुदा
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