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________________ पय डिबंधाहियारो ३०३ च । पत्तेगेण साधारणेण सेसाणं सव्वाणं बंधगा ओदइगो भावो । अबंधगा णत्थि । एवं पढमाए । विदियाए याव सत्तमा ति एवं चेव । णवरि खड्गं णस्थि । सत्तमाए मिच्छत्त-तिरिक्खायु बंधगा त्ति को भावो ? ओदइगो भावो । अबंधगा त्ति को भावो ? ओदइगो वा उपसमिगो वा खयोवसमिगो वा पारिणामियो वा । णवरि मिच्छत्तअबंधगात्ति को भावो ? ओदइगो णत्थि । तियों के बन्धकों में प्रत्येक तथा साधारणसे औदायिक भाव है. अबन्धक नहीं हैं। इस प्रकार पहली पृथ्वीमें जानना। दूसरीसे लेकर सातवों पृथ्वी पर्यन्न इसी प्रकार जानना । विशेष यह है कि द्वितीय आदि पृथ्वियोंमें क्षायिक भाव नहीं है।' [ कारण क्षायिकसम्यक्त्वी जीवका प्रथम पृथ्वीपर्यन्त उत्पाद होता है। ] सातवीं पृथ्वीमें मिथ्यात्व तथा तिथंचायुके वन्धकोंके कौन भाव है ? औदयिक भाव है। अबन्धकों के कौन भाव हैं ? औदायिक, औपशमिक, क्षायोपशमिक वा पारिणामिक है। विशेष, मिथ्यात्वके अबन्धकोंके कौन भाव है ? औदयिक भाव नहीं है अर्थात् यहाँ औपशमिक, क्षायोपशमिक वा पारिणामिक भाव हैं। _ विशेष- सासादन गुणस्थानकी अपेक्षा पारिणामिक भाव है, मिश्र गुणस्थानकी अपेक्षा क्षायोपशमिक है तथा अविरत सम्यक्त्वीकी अपेक्षा औपशमिक तथा क्षायोपशमिक भाव है। 'धवलाटीकामें नारकीके औपशमिकभावके सम्बन्धमें लिखा है- दर्शन मोहनीयके उदयाभाव लक्षणवाले उपशमके द्वारा उपशम सम्यग्दृष्टि उत्पन्न होता है, इससे वह औपशमिक है। शंका-यदि उदयाभावको भी उपशम कहते हैं, तो देवपना भी औपशमिक होगा, क्योंकि वह देवपना नरकादि शेष तीन गतियोंके उदयाभावसे उत्पन्न होता है. ? समाधान-नहीं, क्योंकि वहाँ तीनों गतियोंका स्तिबुक-संक्रमणके द्वारा उदय पाया जाता है अर्थात् स्तिबुक संक्रमणके द्वारा अनुदय प्राप्त तीनों गतियोंका संक्रमण होकर विपाक होता है । (तिण्हं गईणं स्थिउक्कसंकमेण उदयस्सुवलंभा) अथवा देवगति नामकर्मका उदय होनेसे देवगतिको औपशमिक नहीं कहा है । (पृ०२१०) क्षायोपशमिक भावके विषयमें यह कथन ध्यान देने योग्य है. दर्शन मोहनीयकी सम्यक्त्व प्रकृति के उदयसे जो चल, मलिन तथा अगाढ सम्यक्त्व होता है, वह वेदक सम्यक्त्व है। जीवकाण्ड गोम्मटसार में लिखा है : "दसणमोहुदयादो उप्पजइ जं पयत्थसद्दहणं । चल-मलिणमगाढं तं वेदयसम्मत्तमिदि जाणे ॥६४६॥" १. “विदियादिसु पुढवीसु खइयसम्मा दिट्ठीणमुप्पत्तीए अभावा।" - जीव० भा० टी० पृ० २११। २. "आदेसेण गइयाणुवादेण णिरयगईए णेरइएसु मिच्छादिट्टि त्ति को भावो, ओदइओ भावो। सासणसम्माइट्टि त्ति को भावो, पारिणामिओ भावो । सम्मामिच्छाइदिति को भावो, खओवसमिओ भावो। असंजदसम्माइट्रि त्ति को भावो ? उवसमिओ वा खइयो वा खओवसमिओ वा भावो।" -जी० भावाणु० सूत्र १०-१४। ३. "पिंडपगईण जा उदयसंगया तीए अणुदयगयाओ। संकामिऊण वेयइ जं एसो थिबकसंकामो॥" - पंच०सं०.संक्रम.८०॥ -पिंड प्रकृतियोंमें से किसीके उदय आनेपर अनुदय प्राप्त शेष प्रकृतियोंका उस प्रकृतिमें संक्रमण होकर उदय आनेको स्तिबुक संक्रमण कहते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001388
Book TitleMahabandho Part 1
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages520
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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