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महाबंधे
_ 'धवलाटीकामें सम्यक्त्व प्रकृतिको 'वेदगसम्मत्तफद्दय'-वेदक-सम्यक्त्व स्पर्धक कहा है। वहाँ कहा है-"दर्शन मोहनीयकी अवयव स्वरूप देशघाती लक्षणवाले वेदक सम्यक्त्व प्रकृतिके उदयसे उत्पन्न होनेवाला सम्यग्दृष्टिभाव क्षायोपशमिक कहलाता है।
वेदकसम्यक्त्व प्रकृतिके स्पर्धकोंको क्षय संज्ञा है, क्योंकि उसमें सम्यग्दर्शनकीप्रतिबन्धक शक्तिका अभाव है। मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व इन दोनोंके उदयाभावको उपशम कहते हैं। इस प्रकार उपर्युक्त क्षय तथा उपशम इन दोनों के द्वारा उत्पन्न होनेसे सम्यग्दृष्टिभाव क्षायोपशमिक कहलाता है।
'गोम्मटसार'जीवकाण्डकी संस्कृत टीकामें लिखा है-"एवं सम्यक्त्वप्रकृत्युदयमनुभवतो जीवस्य जायमानं तत्त्वार्थश्रद्धानं वेदकसम्यक्त्वमित्युच्यते । इदमेव तायोपशमिक-सम्यपत्वं नाम दर्शनमोहसर्वघातिस्पर्धकानामुदयाभावलक्षणक्षये देशघातिस्पर्धकरूपसम्यक्त्वप्रकृत्युदये तस्यैवोपरितनानुदयप्राप्तस्पर्धकानां सवस्थालक्षणोपशमे च सति समुत्पन्नत्वात्" (पृ०५०) -इस प्रकार सम्यक्त्व प्रकृतिके उदयका अनुभव करनेवाले जीवके उत्पन्न होनेवाला तत्त्वार्थका श्रद्धान वेदक सम्यक्त्व कहा जाता है। इसे ही क्षायोपशमिक सम्यक्त्व कहा है, क्योंकि दर्शनमोहके सर्वघाती स्पर्धकोंके उदयका अभाव लक्षणक्षय होनेसे तथा देशघाति स्पर्धक रूप सम्यक्त्व प्रकृतिके उदय होनेपर तथा उसके आगेके अनुदय अवस्थाको प्राप्त स्पधकोंका सदवस्था लक्षण उपशम होनेपर यह उत्पन्न होता है।
आचार्य पूज्यपाद भी क्षायोपशमिक भावके लक्षणमें देशघाति स्पर्धकोंका उदय, सर्वघातिस्पर्धकोंका उदय क्षय तथा उनका सदवस्था रूप उपशम कहते हैं । उन्होंने सर्वार्थसिद्धिमें लिखा है.-"सर्वघातिस्पर्धकानामुदयक्षयात्तेषामेव सदुपशमात् देशघातिस्पर्धकानामुदये पायोपशमिको भावो भवति (स. सि०,०२, सू०५ की टीका,पृ०६३) तत्त्वार्थराजवातिकमें आचार्य अकलंकदेवने सर्वार्थसिद्धिकी उपरोक्त परिभाषाको स्वीकार कर उसपर भाष्य लिखकर स्पष्टीकरण किया है । (रा० वा०, पृ०७४,सू० ५, अ०२)।
इस समस्त विवेचनको दृष्टिमें रखनेपर यह ज्ञात होता है कि 'धवला'टीकामें क्षयो. पशमकी भिन्न प्रकार व्याख्या की गयी है। वहाँ आचार्य सर्वघातिके स्पर्धकोंके उदयाभावको क्षय न कहकर देशघाति के स्पर्धकोंको 'क्षय' संज्ञा प्रदान करते हैं तथा सर्वघातिके स्पर्धकोंके उदयाभावको उपशम कहते हैं। इस प्रकार क्षय और उपशम युक्त भावको धवलाटीकामें क्षयोपशम कहा है । पूज्यपाद, अकलंकदेव आदिने देशघातिके उदयका प्रतिपादन किया है, अतः उन्होंने देशघातिकी 'क्षय' संज्ञाका समर्थन नहीं किया है। जब देशघातिके उदयसे चल, मल तथा रुचिशैथिल्य रूप अगाढ दोष उत्पन्न होते हैं, तब देशघातिको 'क्षय' स्वीकार करनेमें कठिनता उपस्थित होती है।
क्षयोपशमके विषयमें गोम्मटसार' टीकामें पं० टोडरमलजीने इस प्रकार स्पष्टीकरण किया है : "सर्वत्र क्षयोपशमका स्वरूप ऐसा ही जानना जहाँ प्रतिपक्षी कर्मके देशघातिया स्पर्धकनिका उदय पाइये तीहि सहित सर्वपातिया स्पर्धक उदयनिषेक सम्बन्धी तिनिका उदय
१. आप्तागमपदार्थश्रद्धानावस्थायामेव स्थितं कम्प्रमेव अगाढमिति कोय॑ते । तद्यथा सर्वेषामहत्परमेष्ठिनां अनन्तशक्तित्वे समाने स्थितेऽपि अस्मै शान्तकर्मणे शान्तिक्रियायै शान्तिनाथदेवः प्रभुर्भवति, अस्मै विघ्नविनशनादिक्रियायै पार्श्वनाथदेवः प्रभुरित्यादिप्रकारेण रुचिशैथिल्यसम्भवात्, यथा वृद्धकरतलगतयष्टि : शिथिल. संवन्धतया अगाढा तथा वेदकसम्यक्त्वमपि ज्ञातव्यम् । -गो०जी० संस्कृत टीका,पृ०५१ ।
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