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महाबंधे
१०. पंचणाणावरणीय-चदुदंसणावरणीय-जसगित्ति-उच्चागोद-पंच-अंतराइगाणं को बंधको, अबंधो० १ मिच्छादिट्टिप्पहुदि याव सुहुमसंपराइयसुद्धिसंजदा त्ति बंधा। सुहुमसांपराइय-सुद्धिसंज०दव्वाए चरिमसमयं गंतूण बंधो वोच्छिज्जदि । एदे बधा, अवसेसा
गुणस्थान
बन्ध व्युच्छित्ति प्राप्त प्रकृतियाँ
विवरण
मिथ्यात्व
१६
मिथ्यात्व, हुण्डसंस्थान, नपुंसकवेद, असम्प्राप्तासृपाटिकासंहनन, एकेन्द्रिय, स्थावर, आताप, सूक्ष्मत्रय, विकलेन्द्रिय, नरक गति, नरकानुपूर्वी, नरकायु ।
४ अनन्तानुबन्धी, स्त्यानत्रिक, दुर्भगत्रिक, संस्थान ४, संहनन ४, दुर्गमन, स्त्रीवेद, नीचगोत्र, तियं चगति, तिथंचानुपर्वी, उद्योत, तिथंचायु ।
सासादन
मिश्र अविरत
देशविरत प्रमत्तसंयत अप्रमत्तसंयत अपूर्वकरण
अप्रत्याख्यानावरण ४, वज्रवृषभसंहनन, औदारिकशरीर, औदारिकआंगोपांग, मनुष्य द्विक तथा मनुष्यायु ।
प्रत्याख्यानावरण ४ । अस्थिर, अशुभ, असाता, अयशःकाति, अरति, शोक । देवायु ।
निद्रा-प्रचला ये प्रथम भागमें । छठेमें तीर्थकर, निर्माण, प्रशस्तविहायोगति, पंचेन्द्रिय, तेजस, कामग, आहारद्विक, समचतुरस्र संस्थान, सुरद्विक, वैक्रियिक शरीर, वैक्रियिक आंगोपांग, वर्ण ४, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उछवास, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय । चरममें हास्य,रति,भय,जुगुप्सा ।
प्रथम भागमें पुरुषवेद, २रेमें सं० क्रोध, ३रेमें सं० मान, ४ थेमें सं० माया, ५ ३में सं० लोभ ।
५ ज्ञानावरण, ४ दर्शनावरण, ५ अन्तराय, यशःको ति, उच्च गोत्र
अनिवृत्तिकरण
सूक्ष्मसाम्पराय उपशांतकषाय क्षीणमोह सयोगकेवलो अयोगकेवली
सातावेदनीय।
गो० क० गा०५४-१०२।
१०.५ ज्ञानावरण, ४ दर्शनावरण, यशस्कीर्ति, उच्चगोत्र तथा ५ अन्तरायोंका कौन बन्धक है, कौन अबन्धक है ? मिथ्यादृष्टिसे लेकर सूक्ष्मसाम्परायशुद्धिसंयतपर्यन्त बन्धक हैं। सूक्ष्मसाम्परायशुद्धिसंयत द्रव्यके चरम समय तक पहुँचकर अन्त में बन्धकी व्युच्छित्ति हो
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