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पडबंधाहियारो
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८. एवं मूलपगदि अट्ठपदभंगो कादव्वो । एदेण अट्ठपदेण दुवि० ओघे० आदेसे | ओघे० 'पंचणा०-णवदंसणा०-मिच्छत्त सोलसकसा ०-भयं दुर्गु० -तेजा-कम्म०वण्ण०४ - अगुरु० उप ० - णिमिण० पंचंतराइ० किं सादि० ४ १ सादियबंधो वा० ४ । सादासादं सत्तणोकसाय-चदुआयु-चदुग०-पंचजा०-तिष्णिसरी० छस्संठा०-तिण्णिअंगो०-छस्संघड ० चत्तारि आणुपु० - परघादुस्सास- आदावज्जीवं दोविहायगदि-तसादिदसयुगलं तित्थयरं णीचुच्चागोदाणं किं सादि०४ : सादियअद्ध्रुवबंधो । एवं अचक्खु । भवसिद्धि • धुवरहिदं । एवं याव अणाहारगति दव्वं ।
६. यो सो बंधसामित्तविचयो णाम तस्स इमो णिद्देसो ओघे० आदे० | ओघे० चोस - जीवसमांसा णादव्या भवंति । तं यथा मिच्छादिट्ठि याव अजोगिकेवलिति । एदेसिं चोद्दस - जीवसमासाणं पगदिबंधवोच्छेदो कादव्वो भवदि ।
5. इस प्रकार मूल कर्मप्रकृति के अर्थपदभंग (प्रयोजनभूत पदों के भंग) करना चाहिए। इस अर्थपदसे इस वातको लक्ष्यमें रखते हुए अर्थात् ओघ तथा आदेश-द्वारा दो प्रकार निर्देश करते हैं ।
ओघका अर्थ सामान्य तथा आदेशका अर्थ विशेष है। ओघसे ५ ज्ञानावरण, ९ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, १६ कपाय, भय, जुगुप्सा, तैजस, कार्मण, वर्णं आदि ४, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण, ५ अन्तरायके क्या सादि, अनादि, ध्रुव, अध्रुव ये चारों बन्ध होते हैं ? सादि,
दि, ध्रुव, अध्रुवबन्ध होते हैं ।
साता, असाता, भय जुगुप्सा बिना ७ नोकषाय, ४ आयु, ४ गति, ५ जाति, ३ शरीर, ६ संस्थान, ३ आंगोपांग, ६ संहनन, ४ आनुपूर्वी, परघात, उच्छ्वास, आताप, उद्योत, २ विहायोगति, त्रसादि इस युगल, तीर्थंकर, नीचगोत्र, उच्चगोत्र इनके क्या सादि आदि चार बन्ध होते हैं ? सादि तथा अध्रुव बन्ध हैं ।
ऐसा अचक्षु दर्शन में जानना चाहिए। भव्यसिद्धिकों में ध्रुव भंग नहीं है। अनाहारकपर्यन्त ऐसा जानना चाहिए।
[ बन्धस्वामित्वविचयप्ररूपणा ]
९. जो बन्धस्वामित्वविचय है उसका ओघ तथा आदेशसे दो प्रकार निर्देश करते हैं। ओघसे - मिध्यादृष्टिसे लेकर अयोगकेवली पर्यन्त चौदह जीवसमास - गुणस्थान होते हैं। इन चौदह जीवसमासों - गुणस्थानों में प्रकृतिबन्धकी व्युच्छित्ति कहनी चाहिए।
१. "घादितिमिच्छक सायाभय तेज गुरु-दुग- णिमिण वण्णचओ । सत्तेतालधुवाणं चदुधा सेसाणयं च दुधा ॥” – गो० क०, गा० १२३ - १२४ । २. "एत्तो इमेसि चोद्दसण्हं जोवसमासाणं मग्गणट्टयाए तत्थ इमाणि चोहम चेत्राणाणि णायव्वाणि भवंति । जीवाः समस्यन्ते एष्विति जीवसमासाः । तेपां चतुर्दशानां जीवसमासानां चतुर्दशगुणस्थानानामित्यर्थः । " - ध० टी० भा० १ ० ९१,१३१ ।
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