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________________ महाबंधे इमो दुवि० । ओघे० आदे। ७. ओघे० सादिय-बंधो णाम तत्थ इमं अट्ठपदं एका वा छा वा पगदीओ वोच्छिण्णाओ संतिओ भूयो बज्झदि त्ति । एसो सादियबंधों णाम । [सादि-अनादिध्रुव-अध्रुवषन्धप्ररूपणा ] जो सादि, अनादि, ध्रुव, अध्रुव बन्ध है, उसका ओघ तथा आदेशसे दो प्रकारका निर्देश है। ७. सादि बन्धका यह अर्थपद है कि एक कर्म अर्थात् आयु कर्मका, छह कर्मोका अर्थात् वेदनीयको छोड़कर शेष ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय, नाम, गोत्र तथा अन्तराय रूप छह काँका बन्ध व्युच्छिन्न होने के पश्चात् पुनः बन्ध होना सादिबन्ध है । विशेषार्थ-आयुका निरन्तर बन्ध नहीं होता है। आयुका बन्ध होकर रुक जाता है, पुनः बन्ध होता है, अतएव इसको सादिवन्ध कहा है। सदा बन्ध न होनेके कारण अध्रुव भी है। आयुके विपय में गोम्मटसार कर्मकाण्डमें लिखा है कि भुज्यमान आयुके उत्कृष्ट छह मास अवशेप रहनेपर देव तथा नारकी मनुष्यायु वा तिर्यंचायुका बन्ध करते हैं। भोगभूमिया जीव छह मास अवशेप रहनेपर देवायुका ही बन्ध करते हैं। मनुष्य तथा तिर्यच भुज्यमान आयुका तीसरा भाग अवशेष रहनेपर चारों आयुका बंध करते हैं। तेजकायिक तथा वातकायिक जीव एवं सप्तम पृथ्वीके नारकी नियंच आयुको ही बाँधते हैं। एकेन्द्रिय वा विकलेन्द्रिय मनुष्यायु वा तिर्यंचायु ही का बन्ध करते हैं। एक जीव एक भवमें एक ही आयुका बन्ध करता है । वह भी योग्यकालमें आठ बार ही बाँधता है । वहाँ सर्वत्र तीसरा-तीसरा भाग शेष रहनेपर बाँधता है। आठ अपकर्ष के कालों में पहली बारके बिना द्वितीयादिक बार में पूर्व में जो आयु बाँधी थी, उसकी स्थिति की वृद्धि, हानि व अवस्थिति होती है। पहली बार आयुकी जो स्थिति बाँधी थी, उसके पश्चात् यदि दूसरी बार, तीसरी बार इत्यादिक बन्ध योग्य काल में पहली स्थितिसे यदि अधिक आयुका बन्ध हुआ है, तो पीछे जो अधिक स्थिति बँधी उसकी प्रधानता जाननी चाहिए। यदि पूर्वबद्ध स्थितिको अपेक्षा न्यून स्थिति बँधी, तो पहली बँधी अधिक स्थितिकी प्रधानता जाननी चाहिए। आयुके बन्धको करते हुए जीवके परिणामोंके कारण आयुका अपवर्तन अर्थात् घटना भी होता है । इसे अपवर्तन घात कहते हैं। उदय प्राप्त आयुके अपवर्तनको कदलीघात कहते हैं। यह भी ज्ञातव्य है कि तीसरा भाग अवशेष रहने पर आगामी आयुका बन्ध होगा ही: इस प्रकार का एकान्त नियमः नहीं है। उस कालमें आयुके बन्ध होनेकी योग्यता है। वहाँ आयुका बन्ध होवे तथा न भी होवे । (गो० क. बड़ी टीका पृ० ८३६-८३८ गाथा ६३९-६४३ ) उपशान्त कषाय गुणस्थान में जब कोई जीव पहुँचता है, तब ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय, नाम, गोत्र तथा अन्तरायका बन्ध रुक जाता है, वहाँ केवल सातावेदनीयका ही बन्ध होता है । जब वह जीव गिरकर पुनः सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान में आता है, तब ज्ञानावरणादिका बन्ध पुनः प्रारम्भ हो जाता है । इस कारण ज्ञानावरणादिका सादिबन्ध कहा गया है । १. "सादी अबंधबधे से हि अणारू ढगे अणादी हु । अभवसिद्धम्हि धुवो, भवसिद्धे अद्धवो बंधो ।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001388
Book TitleMahabandho Part 1
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages520
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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