________________
७८
महाबंधे
पज्जत्तभंगो । णवरि सादि ओधिभंगो। असण्णीसु-पंचणा० णवदं० मिच्छ० सोलसक० भयदुगु० तेजाकम्म० वण्ण०४ अगुरु० णिमिणं पंचतरा० जह० खुद्दा० । उक्क० अणंतकालं, असंखे० । चदु-आयु० तिरिक्खगदि-तिगं ओरालि० ओघं० । सेसाणं जह. एग०, उक्क० अंतो।
२८. आहारगे०-पंचणा० णवदंस० मिच्छ० सोलक० भवदु० तिरिक्खगदिओरालिय० तेजाक० वण्ण०४ तिरिक्खगदिपाओ० अगुरु० उप० णिमिणं णीचा० पंचंत० जह० एग० । मिच्छत्तस्स खुद्दाभ० तिसमऊ । उक्क० अंगुलस्स [असंखेजदिभागो] असंखेज्जाओ ओस[प्पिणि-उस्सप्पिणीओ] । तित्थय० जह. एग०, उक्क. तेत्तीसं सादि० । सेसा ओघं० । अणाहार० कम्मइग-भंगो । एवं कालं समत्त ।
पृथक्त्व सागर है। शेष प्रकृतियोंका पंचेन्द्रिय पर्याप्तकके समान भंग है। विशेष यह है कि साता वेदनीयमें अवधिज्ञानके समान भंग' जानना चाहिए। असंज्ञीमें - ५ ज्ञानावरण, ६ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, १६ कषाय, भय, जुगुप्सा, तैजस कार्मण शरीर, वर्ण ४, अगुरुलघु, निर्माण, तथा ५ अन्तरायोंका जघन्य बन्धकाल क्षुद्रभवग्रहण, उत्कृष्टः अनन्तकाल असंख्यात पुद्गलपरावर्तन है। चार आयु, तिथंचगति-त्रिक, औदारिक शरीरका बन्धकाल ओघवत् जानना चाहिए । शेष प्रकृतियोंका जघन्य बन्धकाल एक समय, उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है ।
२८. आहारकोंमें-५ ज्ञानावरण, ९ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, १६ कषाय, भय, जुगुप्सा, तिथंचगति, . औदारिक-तैजस- कार्मण शरीर, वर्ण ४, तिथंचगति प्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण, नीचगोत्र, ५ अन्तरायोंका बन्धकाल जघन्य एक समय है। मिथ्यात्वका तीन समय कम क्षदभवग्रहण प्रमाण है। इनका उत्कष्ट काल अंगलका [ असंख्यातवाँ भाग] असंख्यात उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी प्रमाण है। तीर्थकर प्रकृतिका जघन्य एक समय, उत्कृष्ट साधिक ३३ सागर है । शेष प्रकृतियोंका ओघवत् जानना चाहिए। अनाहारकोंमें - कार्मण काययोगके समान जानना चाहिए।
इस प्रकार (एक जीवको अपेक्षा) बन्धकालका वर्णन समाप्त हुआ।
१. "एगजीवं पडुच्च जहणणेण खुद्दाभवग्गहणं उक्कस्सेण अणंतकालमसंखेज्जपोग्गलपरियट्रं।" -षट् खं०काल०,३३५-३६।।
२. "आहाराणुवादेण - एगजोवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहत्त, उक्कस्सेण अंगुलस्स असंखेज्जदिभागो असंखेज्जासंखेज्जाओ ओसप्पिणि उस्सप्पिणी ।" -षट् खं०,का०,३३८-३६ ।
___ ३. “अणाहारेसु....."कम्मइयकायजोगिभंगो।" -षट. खं०,का०,३४१ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org