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पयडिबंधाहियारो
[अंतराणुगमपरूवणा] २६. अंतराणुग० दुवि० ओघे० आदे० । ओघे-पंचणा०-छदंसणा०-सादासा०चदुसंज०-पुरिस० हस्स-रदि-अरदि- सोग -भय-दुगुं० - पंचिदि० -तेजाकम्म० -समचदु०
[अन्तरानुगम] २९. अन्तरानुगममें यहाँ ( एक जीवको अपेक्षा ) ओघ और आदेशसे दो प्रकारका निर्देश करते हैं।
विशेषार्थ - छक्खंडागम सुत्तके खुद्दाबन्ध ( क्षुद्रकबन्ध ) नामक दूसरे खण्डमें निम्नलिखित एकादश अनुयोगद्वार कहे हैं : “एकजीवेण सामित्तं, एकजीवेण कालो, एगजीवेण अंतरं, णाणाजीवेहि भंगविचओ, दवपरूवणाणुगमो, खेत्ताणुगमो, फोसणाणुगमो, णाणाजीवेहि कालो, णाणाजोवेहि अंतरं, भागाभागाणुगमो, अप्पाबहुगाणुगमो चेदि' २ ( पृष्ठ २५) - एक जीवकी अपेक्षा स्वामित्व, एक जीवकी अपेक्षा काल, एक जीवकी अपेक्षा अन्तर, नानाजीवों की अपेक्षा भंगविचय, द्रव्यप्रमाणानुगम, क्षेत्रानुगम, स्पर्शनानुगम, नानाजीवोंकी अपेक्षा काल, नानाजीवोंकी अपेक्षा अन्तर, भागाभागानुगम और अल्पबहुत्व ।
महाबन्धके पयडिबन्धाहियारमें उक्त अनुयोगद्वारोंके सिवाय सण्णियास परूवणा ( सन्निकर्ष प्ररूपणा ) तथा भावानुगमका भी निरूपण किया गया है ।
शंका - काल प्ररूपणाके पश्चात् अन्तर प्ररूपणाका कथन क्यों किया गया ?
समाधान – 'कालपरूवणाए विणा अन्तर-परूवणाणुववत्तीदो' - कालकी प्ररूपणाके बिना अन्तर प्ररूपणाकी उपपत्ति नहीं बैठती। इस काल प्ररूपणाके पश्चात् अन्तर प्ररूपणा हो कहा जाना चाहिए, कारण एक जीवसे सम्बन्ध रखनेवाला अन्य अनुयोगद्वार नहीं है । वीरसेन स्वामीने कहा है "पुणो अंतरमेव वत्तव्वं, एगजीव संबंधिणो अण्णस्स अणिओगदारस्साभावा" (धवलाटीका क्षुद्रकबन्ध पृष्ठ २६ )।
___ 'अन्तर'शब्दके अनेक अर्थ हैं-उनमें-से यहाँ छिद्र, मध्य अथवा विरह रूप अर्थ लेना चाहिए। आचार्य अकलंकदेवने लिखा है “अन्तरशब्दस्यानेकार्थवृत्तेश्छिद्र-मध्य-विरहेष्वन्यतमग्रहणं" (रा० वा०,पृ. ३०)
ओघसे - ५ ज्ञानावरण, ६ दर्शनावरण, साता-असाता वेदनीय, ४ संज्वलन, पुरुषवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, पंचेन्द्रिय जाति, तैजस, कार्मण , समचतुरस्र
१. बहुष्वर्थेषु दृष्टः प्रयोगः, क्वचिच्छिद्रे वर्तते, 'सान्तरं काष्ठं सच्छिद्रमिति' । क्वचिदन्यत्वे 'द्रव्याणि द्रव्यान्तरमारभन्त' इति, क्वचिन्मध्ये हिमवत्सागरान्तर इति । क्वचित्सामीप्ये "स्फटिकस्य शुक्लरक्ताद्यन्तरस्थस्य तद्वर्णतेति शकलरक्तसमीपस्थस्येति गम्यते । क्वचिद्विशेषे" ।
वारि-वारिज-लोहानां काष्ठपाषाणवाससाम् ।
नारी-पुरुष-तोयानामन्तरं महदन्तरम् ।। इति महान विशेष इत्यर्थः । क्वचिदबहियोगे "ग्रामस्यान्तरे कूपाः, इति; क्वचिदुपसंव्याने 'अन्तरे शाटका' इति. क्वचिद्विरहेऽनभिप्रेतश्रोतजनान्तरे मन्त्रं मन्त्रयते, तद्विरहे मन्त्रयते इत्यर्थः । तत्रह छिद्र-मध्य-विरहेष्वन्यतमो वेदितव्यः" त. रा०प०३० । अन्तरमुच्छेदो विरहो परिणामंतरगमणं णत्थित्तगमणं अण्णभावव्ववहाणमिदि एयट्ठो । एदस्स अंतरस्स अणुगमो अंतराणुगमो ॥ ( खुद्दाबन्ध,पृ० ३, मूत्र १ टोका )
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