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________________ महा बंधे वण्ण०४ अगु०४ पसत्थ० -तस०४ थिरादि-दोणि-यु० सुभग-सुस्सर-आदेज्ज-णिमिणंतित्थयरं - पंचंतरा० बंधंतरं केवचिरं कालादो होदि ९ जह० एग०, उक्क० अंतो० । णवरि णिद्दा- पचला जहणु० अंतो० | थीणगिद्वितिगं मिच्छत्तं अनंताणु०४ जह० अंतो० ० । उक० बेछावसिा० देसू० । अट्ठक० जह० अंतो०, उक० पुव्वकोडिदेसू० । 1 ८० " संस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु ४, प्रशस्त विहायोगति त्रस ४, स्थिरादि २ युगल, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण, तीर्थंकर और ५ अन्तराय के बन्धका अन्तर कितने कालपर्यन्त होता है ? जघन्यसे एक समय, उत्कृष्टसे अन्तर्मुहूर्त है । विशेष यह है कि निद्रा और प्रचलाका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । स्त्यानगृद्धित्रिक, मिथ्यात्व अनन्तानुबन्धी चारका अन्तर जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट कुछ कम दो छयासठ सागर है । विशेषार्थ – कोई एक तिर्यंच या मनुष्य चौदह सागर स्थितिवाले लान्तव, कापिष्ठ देवों में उत्पन्न हुआ। वहाँ एक सागरोपम काल बिताकर द्वितीय सागरोपमके आरम्भ में सम्यक्त्व प्राप्त हुआ, तथा तेरह सागर काल सम्यक्त्व सहित व्यतीत कर मरा और मनुष्य हुआ। वहाँ संयम अथवा संयमासंयमका पालन कर इस मनुष्यभव सम्बन्धी आयुसे कम बाईस सागरवाले आरण, अच्युत कल्पमें उत्पन्न हुआ। वहाँ से मरकर पुनः मनुष्य हुआ । संयमको पालन कर उपरिम ग्रैवेयकमें उत्पन्न हुआ और मनुष्य आयुसे न्यूनत सागर की आयु प्राप्त की । वहाँ अन्तर्मुहूर्त कम छयासठ सागर कालके चरम समय में मिश्र गुणस्थानवाला हुआ । अन्तर्मुहूर्त विश्राम कर पुनः सम्यक्त्वी हुआ । विश्राम ले, चयकर मनुष्य हुआ । संयम या संयमासंयमको पालन कर इसे मनुष्य भवकी आयुसे न्यून बीस सागरकी आयुवाले आनत-प्राणन देवों में उत्पन्न होकर पुनः यथाक्रमसे मनुष्यायुसे कम बाईस तथा चौबीस सागर के देवों में उत्पन्न होकर अन्तर्मुहूर्त कम दो छयासठ सागर कालके अन्तिम समय में मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ। इस प्रकार अन्तर्मुहूर्त कम दो छयासठ सागर अर्थात् एक सौ बत्तीस सागर काल प्रमाण अन्तर हुआ । यह क्रम अव्युत्पन्न लोगों को समझानेको कहा है। परमार्थदृष्टिसे किसी भी तरह छयासठ सागरका काल पूर्ण किया जा सकता है । ( ध० टी० अन्तरा० पृ० ६-७ ) प्रत्याख्यानावरण तथा अप्रत्याख्यानावरण रूप आठ कषायका जघन्य बन्धान्तर अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट कुछ कम एक कोटि पूर्व है । विशेषार्थ – कोई जीव मोहनीयको अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्तायुक्त एक कोटि पूर्व प्रमाण- आयुवाला मनुष्य उत्पन्न हुआ । गर्भसे आठ वर्ष पूर्ण होनेपर वेदकसम्यक्त्वी हो उसने सकलसंयमको प्राप्त किया। एक कोटि पूर्वके अन्त में उसने मिथ्यात्वी होकर मरण किया । इस प्रकार सकलसंयमकी अपेक्षा देशोन एक कोटि पूर्वकाल कषायाष्टकका अन्तर कहलाया । १. एसो उत्पत्तिकमो अउप्पण्ण उप्पायणङ्कं उत्तो । परमत्थदो पुण जेण केण वि पयारेण छावट्टी पूरे दव्त्रा । ( ध० टी०, अं०, पृ०७ ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001388
Book TitleMahabandho Part 1
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages520
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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