SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 167
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ महाबंधे क्खणं णाणोपयुत्तदाए । इदेहि सोलसेहि कारणेहि जीवो तित्थयरणामागोदं कम्मं बंधदि । वत्सलता, प्रवचनप्रभावनता, अभीक्ष्णज्ञानोपयोगयुक्तता, इन सोलह कारणोंसे जीव तीर्थंकर नामगोत्र कमेका बन्ध करता है। विशेषार्थ-यहाँ यह शंका उत्पन्न होती है कि जब अन्य कर्मोंके बन्धके कारण नहीं बताये गये, तब तीर्थकर प्रकृतिके बन्धके कारणोंका सूत्रकारने क्यों पृथक् रूपसे उल्लेख किया है ? इसके समाधानमें वीरसेनाचार्य धवला टीकामें लिखते हैं कि तीथंकरके बन्धके कारण ज्ञात न होनेसे उनका पृथक् उल्लेख करना उचित है। उसके बन्धका कारण मिथ्यात्व नहीं है, कारण मिथ्यात्वी जीवके तीर्थकर प्रकृतिका बन्ध नहीं होता। सम्यग्दृष्टिके ही तीर्थकर प्रकृतिका बन्ध होता है। असंयम भी बन्धका कारण नहीं है, क्योंकि संयमी जीव भी उसके बन्धक होते हैं । कषाय भी बन्धका कारण नहीं है, कारण कषायके होते हुए भी इसके बन्धका विच्छेद देखा जाता है अथवा बन्धका आरम्भ भी नहीं होता है। कदाचित् मन्द कषायको बन्धका कारण कहें, तो यह भी नहीं बनता है; कारण तीव्र कषाययुक्त नारकियोंमें भी तीर्थंकर प्रकृतिका बन्ध देखा जाता है। तीव्र कषाय भी उसका कारण नहीं है। क्योंकि मन्द कषायवाले सर्वार्थसिद्धिके देवों और अपूर्वकरणगुणस्थानवालोंमें भी उसका बन्ध होता है। बन्धका कारण कदाचित् सम्यक्त्वको कहें, तो यह भी ठीक नहीं है। सम्यग्दर्शन होते हुए भी बन्धका कहीं-कहीं अभाव देखा जाता है। यदि दर्शनकी निर्मलताको कारण कहें तो दर्शनमोहके क्षय करनेवाले सभी व्यक्तियोंके तीर्थंकर प्रकृतिका बन्ध होना चाहिए था, किन्तु ऐसा भी नहीं है। अतः दर्शनकी शुद्धता भी कारण नहीं है। कार्यकारणभावका नियम तो तब बनता है, जब कारणके होनेपर नियमसे कार्य बन जाये। सब क्षायिक सम्यक्त्वी जीव तो तीर्थकरप्रकृतिका बन्ध नहीं करते हैं। ऐसी स्थिति में उत्पन्न होनेवाली शंकाके निराकरणके लिए भूतबली स्वामीने कहा है कि इन सोलह कारणोंसे जीव तीर्थकर नामगोत्रका बन्ध करते हैं। शंका-नामकर्मके भेद तीर्थंकरको गोत्र संज्ञा क्यों की गयी ? समाधान-उच्चगोत्रके बन्धके अविनाभावी होनेसे तीर्थंकरप्रकृतिको भी गोत्र कहा है ' ( ?) तीर्थकरके बन्धका प्रारम्भ मनुष्यगतिमें ही होता है, इस वातका परिज्ञान करानेके लिए सूत्र में 'तत्थ' शब्दका ग्रहण किया है। शंका-तीर्थकरके बन्धका प्रारम्भ अन्य गतियों में क्यों नहीं होता है ? समाधान-तीर्थकरप्रकृति में सहकारी कारण केवलज्ञानसे उपलक्षित जीवद्रव्य है। उसके विना बन्धका प्रारम्भ नहीं होता। मनुष्यगतिमें केवलज्ञानसे उपलक्षित जीव पाया जाता है । इससे मनुष्यगतिमें ही वन्धका प्रारम्भ कहा है। इसका तात्पर्य यह है कि मनुष्यगतिमें केवलज्ञान उत्पन्न होकर तीर्थकरप्रकृति पूर्ण विकसित हो अपना कार्य कर सकती है; अन्य गतिमें यह बात नहीं है । अतः तीर्थंकरप्रकृतिका अंकुरारोपण मनुष्यगतिमें ही होता है। १. कथं तित्ययरस्स णामकम्मावयवस्स गोदसण्णा? ण, उच्चगोदबंधाविणाभावित्तणेण तित्थयरस्सवि गोदत्तसिद्धीदो-बंधसामित्तविचय प० २८ ताम्रपत्रीय प्रतिः । २. "अण्णगदीसु किं ण पारंभो होदित्ति वुत्ते ण होदि केवलणाणोवलक्खियजीवव्वसहकारिकारणस्स तित्थयर-णामकम्मबंधपारंभस्स तेण विणा समुप्पत्तिविरोहादो।"-ध० टी०प० ५३६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001388
Book TitleMahabandho Part 1
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages520
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy