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पयडिबंधाहियारो
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पंचिदि० वेगुव्वि० तेजाकम्म० समचदु० वेउ० अंगो० वण्ण०४ देवाणुपु० - अगुरु ०४ पसत्थवि० थीरा - (थिर - सुभ-सुभग- सुस्सर-आदेज० णिमिणं को बंध० को अब ० ? मिच्छादि० याव अपुत्र० उवस० खवा बंधा० । अपुव्वकरण० संखेजाभागं गंतू० बंधो वोच्छे ० । एदे बंधा अव० [ अधा ] | आहारस० आहारस० अंगोवं० को ब० को अब ० १ अप्पमत्त - अपुव्वकरणद्धाए संखेजाभागं गंतूण बंधो० [वोच्छिजदि] । एदे बंधा अवसेसा [ अबंधा ] । तित्थयरस्स को बं०, को अत्र ० ? असंज० या अपुत्रकर० बंधा० । अपुव्वकरणद्धाए संखेजाभागं गंतू ० । एदे ब० अवसेसा अबंधा० । कदिहि कारणेहि जीवा तित्थयरणामागोदकम्मं बंधदि ? तत्थ इमेणेहि सोलसकारणेहि जीवा तित्थयरणामागोदं कम्मं बंधदि । दंसणविसुज्झदाए, विणयसंपण्णदाए, सीलवदेसु णिरदिचारदाए, आवासएसु अपरिहीणदाए, खणलवपडिमज्झ ( बुज्झ ) णदाए, लद्धिसंवेग संपण्णदाए, यथा छामे ( थामे ) तथा तवे, साधूणं समाधिसंधारणदार, साधूणं वेजावच्चयोगयुत्तदाए, साधूणं पासुगपरिच्चागदाए, अरहंतभत्तीए, बहुस्सुदभत्तीए, पवयणभत्तीए, पवयणवच्छल्लदाए, पवयणपभावणदाए अभि
आहारक शरीर, आहारक अंगोपांगका कौन बन्धक है ? कौन अबन्धक है ? अप्रमत्त, अपूर्वकरण संख्यातवें भाग व्यतीत होनेपर बन्धकी व्युच्छित्ति होती है। ये बन्धक हैं; शेष अबन्धक हैं |
तीर्थंकर प्रकृतिका कौन बन्धक है ? कौन अबन्धक है ? असंयत सम्यग्दृष्ट अपूर्वकरणपर्यन्त बन्धक हैं। अपूर्वकरणके संख्यात भाग बीतनेपर बन्धकी व्युच्छित्ति होती है । ये बन्धक हैं; शेष अबन्धक हैं ।
शंका- कितने कारणोंसे जीव तीर्थकर नामगोत्र कर्मका बन्ध करता है ?
समाधान- इन सोलह कारणोंसे जीव तीर्थंकर नामगोत्र कर्मका बन्ध करता है । दर्शनविशुद्धता, विनयसम्पन्नता, शीलत्रतेषु निरतिचारता, आवश्यकेषु अपरिहीनता, क्षणलव- प्रतिबोधनता, लब्धिसंवेगसम्पन्नता, यथाशक्ति तप, साधुसमाधिसन्धारणता, वैयावृत्त्ययोगयुक्तता, साधु-प्रासुकपरित्यागता, अरहन्तभक्ति, बहुश्रुतभक्ति, प्रवचनभक्ति, प्रवचन
१. धवला टीका में जो षोडशकारणोंके नाम गिनाये हैं, उनके क्रममें थोड़ा अन्तर है। यहां आठवें नम्बरपर 'साधुसमाधिसंधारणता' के स्थान में 'साधुप्रासुकपरित्यागता' पाठ है । ९ वें नम्बरपर वैयावृत्त्ययोगयुक्तता' के स्थान में 'समाधिसंधारणता' पाठ है । नं० १० में 'साधु प्रासुकपरित्यागता' के स्थान में 'वैयावृत्ययोगयुक्तता' पाठ है । शेष पाठ समान हैं । तत्त्वार्थसूत्र में इस प्रकार पाठभेद है नं० ४ में अभीक्ष्णज्ञानोपयोग, नं० ५ में संवेग, ६ में शक्तितः त्याग, नं० १० में अर्हद्भक्ति, नं० १४ में आवश्यकापरिहानि, नं० १६ में प्रवचनवत्सलत्व पाठ है । तत्त्वार्थसूत्र तथा भूतबलिस्वामी द्वारा कथित भावनाओंके नामों में भी कहीं-कहीं अन्तर है | तत्त्वार्थसूत्र में 'संवेग', 'साधुसमाथि', 'शक्तितः त्याग', 'मार्गप्रभावना' पाठ है, उसके स्थान में क्रमशः 'लब्धिसंवेगसम्पन्नता', 'साधु-समाधिसंधारणता', 'प्रासुकपरित्यागता', 'प्रवचनप्रभावनता' पाठ है । आचार्य भक्तिका 'महाबन्धमें पाठ नहीं है। एक नवीन भावना क्षणलवप्रतिबोधनता सम्मिलित की गयी है ।
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