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पय डिबंधाहियारो
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'गोम्मटसार कर्मकाण्डकी संस्कृत टीकामें लिखा है कि तीर्थंकरप्रकृतिका बन्ध मनुष्यगतिमें प्रारम्भ किया जाता है, क्योंकि अन्य गतियोंमें विशिष्ट विचार, क्षयोपशम आदि सामग्रीका अभाव है। इसी कारण मनुष्यगतिका सूचक ‘णरा' यह पद ६३ गाथामें आया है। टीकाकारके ये शब्द महत्त्वपूर्ण हैं-"नरा इति विशेषणं शेषगतिज्ञानमपाकरोति, विशिष्टप्रणिधान-क्षयोपशमादिसामग्रीविशेषाभावात्” (पृ० ७८)।
किन्हीं आचार्योंका मत है कि इस तीर्थंकरप्रकृतिका बन्ध प्रथमोपशम सम्यक्त्वमें नहीं होता है, क्योंकि उसका काल स्तोक अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है। उसमें षोडशकारण भावनाएँ नहीं भायी जा सकती। महाबन्धकारका यह अभिमत नहीं है । यह बन्ध प्रत्यक्षकेवली, श्रुतकेवलोके चरणोंके समीप ही होता है, कारण अन्यत्र उस प्रकारको विशिष्ट विशुद्धताका अभाव है।
बन्धसामित्तविचय (मूल पृ० ७५ ) में लिखा है, "पारद्धतित्थयर-बंधादो तदियभवे तित्थयरसंतकम्मियजीवाणं मोक्खगमणणियमादो” तीर्थकर प्रकृति के बन्धारम्भके भवसे तृतीय भवमें तीर्थकर कर्मके सत्त्वयुक्त जीवोंके मोक्षगमनका नियम है । अतएव तीर्थंकर प्रकृतिका बन्धक तीन भवसे अधिक संसार में नहीं रहता है ।
पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षा इस प्रकृतिके बन्धके कारण सोलह कहे गये हैं । द्रव्यार्थिक नयका अवलम्बन करनेसे एक कारण भी इसके बन्धका हेतु है, दो भी कारण होते हैं। अतः सोलह ही होते हैं या नहीं,इस संशयके निवारणके लिए सोलह कारणोंकी गणना सूत्रमें
इन भावनाओंके स्वरूपपर वीरसेनाचार्यने 'बंधसामित्त विचय नामक तृतीय खण्डकी धवलाटीकामें विशद विवेचन किया है । उसका मर्म इस प्रकार है
दर्शनविशुद्धता--यह भावना सोलह कारण भावनाओंमें प्रथम संगृहीत की गयी है। इसका भाव तीन मूढता तथा अष्टमलरहित निर्मल सम्यग्दर्शनका लाभ होना है।
शंका-यदि इस एक ही भावनासे तीर्थंकरप्रकृतिका बन्ध होता है, तो सभी सम्यक्त्वी जीव उसका बन्ध क्यों नहीं करते ?
समाधान-शुद्ध नयसे मात्र तीन मूढ़ता तथा अष्टमलोंसे व्यतिरिक्तपना ही दर्शनविशुद्धता नहीं है, इसके साथ-ही-साथ साधु-प्रासुक-परित्यागता, साधु-समाधि-सन्धारणता, साधुवैयावृत्त्ययुक्तता, अरहन्तभक्ति, बहुश्रुतभक्ति, प्रवचनभक्ति, प्रवचनवत्सलता, प्रवचनप्रभावनता, अभीक्ष्णज्ञानोपयोगयुक्तता आदिका भी समावेश होना आवश्यक है। इस प्रकार अन्य भावनाओंका भी संग्रह करनेवाली दर्शनविशुद्धता तीर्थकरका बन्ध करती है।
विनयसम्पन्नता भी तीर्थकरकर्मको बाँधती है। विनयके ज्ञान, दर्शन तथा चारित्रकी अपेक्षा तीन भेद हैं । ज्ञानविनयमें अभीक्ष्णज्ञानोपयोगयुक्तता, बहुश्रुतिभक्ति और प्रवचनभक्ति संगृहीत है । दर्शनविनयका अर्थ है:प्रवचनोपदिष्ट सम्पूर्ण तत्त्वोंका श्रद्धान तथा त्रिमूढ़ता और अष्टमलका त्याग करना । इसमें अरहन्त-सिद्धभक्ति, क्षणलवप्रतिबोधनता, लब्धिसंवेगसम्पन्नता तथा प्रवचनप्रभावनताका सद्भाव पाया जाता है। चारित्र विनयमें शीलवतेषु निरतिचारिता,
१. प्रथमोपशमसम्यक्त्वे शेषद्वितीयोपशम-क्षायोपशमिकक्षायिकसम्यक्त्वेषु च असंयताप्रमत्तान्तमनुष्या एवं तीर्थकरबन्धं प्रारभन्ते, तेऽपि प्रत्यक्षकेवलि-श्रुतकेवलिश्रीपादोपान्त एव । अत्र प्रथमोपशमसम्यक्त्वे इति भिन्न विभक्तिकरणं तत्सम्यक्त्वे स्तोकान्तमहतकालत्वात् षोडशभावनासमयभावात् तद्बन्धप्रारम्भो न इति केषांचित् पक्षं ज्ञापयति । 'केवलिद्वयान्ते एवैति नियमः, तदन्यत्र तादृग्विशुद्धिविशेपासंभवात् पृ० ७८ ।
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