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________________ महाबंधे आवश्यकेषु अपरिहीनता, यथाशक्ति तप, साधु- प्रासुक - परित्यागता, साधु-समाधि- सन्धारणता, साधुवैयावृत्ययोगयुक्तता, प्रवचनवत्सलता संग्रहीत है। इस प्रकार अनेक भावनाओं से समन्वित एक विनयसम्पन्नता रूप भावना तीर्थंकर नामकर्मका बन्ध करती है । यह दर्शन तथा ज्ञानकी विनय देव तथा नारकियों में कैसे सम्भव हो सकती हैं ? इससे इसे मनुष्यों में ही कहा है । ४४ शंका- जिस प्रकार यहाँ देव नारकियोंके दर्शन और ज्ञान-विनयका अभाव कहा है, उसी प्रकार चारित्र विनयका अभाव क्यों नहीं कहा है ? समाधान --- ज्ञानदर्शन विनयका विरोधी चारित्र भी नहीं हो सकता । अर्थात् ज्ञानदर्शन विनय के अभाव में चारित्र विनयका भी अभाव होगा। यह बात प्रकट करनेको चारित्रविनयका पृथक उल्लेख नहीं किया है । शीलत्रतेषु निरतिचारतासे भी तीर्थंकर नामकर्मका बन्ध होता है। हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह से विरति होना व्रत है । व्रतका रक्षण करनेवाला शील कहलाता है। मद्यपान, मांसभक्षण, क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसक वेदका अपरित्याग अतिचार कहलाता है। इनका अभाव करना शीलत्रतेषु निरतिचारता है । इससे तीर्थंकर कर्मका बन्ध होता है । शंका- यहाँ शेष पन्द्रह कारण किस प्रकार सम्भव होंगे ? समाधान - सम्यग्दर्शन, क्षणलवप्रतिबोधनता, लब्धिसंवेगसम्पन्नता, साधुसमाधिसन्धारणता, वैयावृत्त्ययोगयुक्तता, साधुप्रासुकपरित्यागता, अरहन्त बहुश्रुत प्रवचनभक्ति, प्रवचनप्रभावनता के बिना शीलत्रतेषु अनविचारता सम्भव नहीं है । असंख्यात गुणश्रेणियुक्त कर्मनिर्जरा में जो हेतु है, उसे व्रत कहते हैं । सम्यक्त्वके बिना केवल हिंसा, असत्य, चौर्य, अब्रह्म तथा परिग्रहके त्यागमात्र से ही वह गुणश्रेणी निर्जरा नहीं हो सकती, कारण दोनोंके द्वारा होनेवाले कार्यका एकके द्वारा सम्पन्न होनेका विरोध है । पटद्रव्य नवपदार्थके समूह रूप लोकको विपय करनेवाली अभीक्ष्णज्ञानोपयोगयुक्तता के बिना शीलत्रतोंमें कारणभूत सम्यक्त्वकी अनुपपत्ति है । इस प्रकार उसमें सम्यग्दर्शनके समान सम्यग्ज्ञानका भी सद्भाव पाया जाता है । यथाशक्ति तप, आवश्यकापरिहीनता तथा प्रवचनवत्सलत्वरूप चारिविनयके बिना यह शीलत्रतेषु निरतिचारिता नहीं बन सकती है। इस प्रकार व्यापक अर्थयुक्त यह भावना तीर्थंकरनामकर्मके बन्धका कारण है । आवश्यकेषु अपरिहीनता - समता, स्तुति, वन्दना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान तथा व्युत्सर्गके भेद से आवश्यक छह प्रकार कहा गया है । शत्रु-मित्र, मणि-पाषाण, सुवर्ण- मृत्तिकामें राग-द्वेषका अभाव समता है । अतीत अनागत तथा वर्तमान कालसम्बन्धी पंचपरमेष्ठियोंका भेद न करके 'णमो अरहंताणं, णमो सिद्धाणं' इत्यादि द्रव्यस्तुतिका कारण नमस्कार स्तुति कहलाता है | वृषभादि चौबीस तीर्थंकर, भरतादि क्षेत्रोंके केवली, आचार्य, चैत्यालयादिकका पृथक्-पृथक् रूपसे नमस्कार करना अथवा गुणोंका अनुस्मरण करना वन्दना है। पंच महाव्रतों तथा ८४ लाख उत्तरगुणों में लगे हुए कलंकोंका प्रक्षालन करना प्रतिक्रमण है । महात्रतोंके १. "हिंसा लियचोज्ज - बंभ-परिग्गहेहिंतो विरदी वदं णाम । वदपरिरवखणं सीलं णाम । सुरावाण-मांसभक्खण कोह्-माण-माया-लोह-हस्स र इ- सोग-भय- दुर्गुछित्यि- पुरिस णउंसयवेदापरिच्चागो अदिचारों । एबेसि विणासो णिरदिचारी संपुण्णदा, तस्स भावो णिरदिचारी " - बन्धसामित्तविचय, पृ० ३० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001388
Book TitleMahabandho Part 1
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages520
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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