________________
पयडिबंधाहियारो
४५
विनाशके कारण अथवा उनमें मलिनता लगानेवाले दोषोंका जिस प्रकार अभाव होगा, उस प्रकार मैं करूँगा। इस प्रकार चित्तसे आलोचना करके ८४ लाख व्रतोंकी शुद्धिका प्रतिग्रह करना प्रत्याख्यान है। शरीर, आहारादिकसे मन वचनकी प्रवृत्तिको अलग करके ध्येयमें रोकनेको व्युत्सर्ग कहते हैं। इन छह आवश्यकोंको अपरिहीनता- अखण्डताको आवश्यकापरिहीनता कहते हैं। इसके द्वारा तीर्थकरधर्मका बन्ध होता है।
यहाँ शेष कारणोंका अभाव नहीं होता है। दर्शनविशुद्धि, विनयसम्पन्नता, व्रतशीलनिरतिचारता, क्षणलवप्रतिबोधनता, लब्धिसंवेगसम्पन्नता, यथाशक्ति तप, साधु-समाधिसन्धारण, वैयावृत्त्ययोगयुक्तता, प्रासुकपरित्यागता, अरहन्त-बहुश्रुत-प्रवचनभक्ति, प्रवचनप्रभावना, प्रवचनवत्सलता, अभीक्ष्णज्ञानोपयोगयुक्तताके बिना छह आवश्यकोंकी निरतिचारिता नहीं बन सकती है। अतः आवश्यकेषु अपरिहीनता तीर्थकरनामकर्मका चतुर्थ कारण है।
क्षण -लव-प्रतिबोधनता-क्षणलव' शब्द कालविशेषका द्योतक है। उस कालविशेषमें सम्यग्दर्शन, ज्ञान, व्रत तथा शीलरूप गुणोंका उज्ज्वल करना अर्थात् कलंकका प्रक्षालन करना अथवा त्रतादिकी प्रदीप्ति अर्थात् वृद्धि करना प्रतिबोध है। उसका भाव प्रतिबोधनता है। क्षणलवोंकी प्रतिबोधनताको क्षणलवप्रतिबोधनता कहते हैं। यह अकेली भावना भी तीथकरनामकर्मका वन्ध करती है। यहाँ भी पूर्वकी भाँति शेप कारणका अन्तर्भाव रहता है।
लब्धिसंवेगसम्पन्नता-सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रमें जीवके समागमका नाम लब्धि है। लब्धिके लिए जो संवेग है-वह लब्धिसंवेग है। उसकी सम्पन्नताको लब्धिसंवेगसम्पन्नता कहते हैं। शेष कारणोंके अभाव में इसका सद्भाव नहीं बनता है, कारण उनके अभावका और लब्धिसंवेग-सम्पन्नताके सद्भावका विरोध है।
यथाशक्ति तप-बल-वीर्यको प्राकृत में 'थाम' कहते हैं। अनशनादि बाह्य, विनयादिअंतरंग द्वादश प्रकारके तप हैं। शक्तिके अनुसार तप करनेसे तीर्थकरकर्मका बन्ध होता है। यह भावना ज्ञान, दर्शनके बलसे सम्पन्न धीर पुरुषके होती है तथा दर्शनविशुद्धतादिके अभावमें यह नहीं पायी जा सकती है। इससे अकेली इस भावनाको तीर्थकरनामकर्मका कारण कहा है।
साधुप्रासुक-परित्यागता-जो अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तवीर्य, विरति, क्षायिक सम्यक्त्वकी साधना करता है उसे साधु कहते हैं। प्रासुकका एक अर्थ है 'वह वस्तु, जिससे जीव निकल गये हों', दूसरा अर्थ है निरवद्य-निर्दोष वस्तु । साधुओंको ज्ञान, दर्शन, चारित्रका परित्याग अर्थात् दान प्रासुकपरित्यागता है। ज्ञानदर्शनचरित्रका परित्यागरूप दान गृहस्थोंमें सम्भव नहीं हो सकता, कारण वहाँ चारित्रका अभाव है। रत्नत्रयका उपदेश भी गृहस्थोंमें नहीं बन सकता है। कारण उनमें दृष्टिवादादि ऊपरके सूत्रों के उपदेशका अधिकार नहीं है । अतः यह साध-प्रासकपरित्यागतारूप कारण महर्षियोंके होता है।
यहाँ भी शेष कारणोंका अभाव नहीं है । अरहन्तादिककी भक्ति, नवपदार्थोंका श्रद्धान, शीलवतोंमें निरतिचारिताके अभाव में ज्ञान, चारित्रका परित्याग अर्थात् दान असम्भव है,
१. "आवलि असंखसमया संखेज्जावलिसमहमस्सासो । सत्तस्सासा थोवो सत्तस्थोवो लवो भणियो॥" -गो० जी०। २. "खणलवा णाम कालविसेमा । सम्मई सणणाणवदसीलगुणाणमुज्जालणं कलंकपक्खालणं मंधुक्खगं वा पडिवुज्झणं णाम । तस्म भावो पडिबुज्झणदा। खणलवाणं पडिवुज्झणदा खणलवपडिवुज्झणदा ॥" -घाटी०प० ५५४ । ३. "संवेगः परमोत्साहो धर्मे धर्मफले चितः।" -पश्चा०।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org