________________
४६
महाबंधे यस्स इणं कम्मस्स उदयेण सदेवासुरमाणुसस्स लोगस्स अच्चणिज्जा पूजणिज्जा वंदणिजा णमंसणिज्जा धम्मतित्थयरा जिणा केवली ( केवलिणो ) भवंति । एवं ओघभंगो पंचिंदियतस०२ भवसि० ।
कारण इसमें विरोध आता है। अतः केवल इस भावनासे भी तीर्थकर कर्मका बन्ध होता है।
साधुसमाधिसन्धारणता-ज्ञान, दर्शन, चारित्रमें सम्यक् प्रकारसे अवस्थान होना समाधि है। भले प्रकार धारण करनेको सन्धारण कहते हैं। साधुओंकी समाधिका भले प्रकार धारण करना साधुसमाधिसन्धारण है। किसी कारणसे प्राप्त होनेवाली समाधिको देखकर सम्यक्त्वी प्रवचनवत्सलता, प्रवचनप्रभावना, विनयसम्पन्नता, शीलवतातिचारवर्जित अरहन्तादिकमें भक्तिवश जो धारण करता है, वह समाधिसन्धारण है। यहाँ भी शेष कारणोंका अभाव नहीं है, क्योंकि इसका सद्भाव उन कारणों के अभावमें नहीं बन सकता है।
वैयावृत्त्ययोगयुक्तता-जिस कारणसे जीव सम्यक्त्व, ज्ञान, अरहन्तभक्ति, बहुश्रुतभक्ति, प्रवचनवत्सलतादिके द्वारा वैयावृत्त्य में लगता है, उसे वैयावृत्त्ययोगयुक्तता कहते हैं। इस प्रकार अकेली इस भावनासे भी तीर्थंकर प्रकृतिका बन्ध होता है । यहाँ शेष कारणोंका यथासम्भव अन्तर्भाव जानना चाहिए।
__ अरहन्त-भक्ति-घातिया कर्मोंके नाश करनेवाले, केवलज्ञानके द्वारा सम्पूर्ण पदार्थोके देखनेवाले अरहन्त हैं। उनकी भक्तिसे तीर्थकरनामकर्मका बन्ध होता है। यह भावना दर्शनविशुद्धतादिके अभावमें नहीं पायी जाती है, कारण इसमें विरोध आयेगा।
बहुश्रुतभक्ति-द्वादशांगके पारगामीको बहुश्रुत कहते हैं। उनमें भक्तिका अर्थ हैउनके द्वारा व्याख्यान किये गये आगमका अनुगमन करना अथवा अनुष्ठानका प्रयत्न करना बहुश्रुत भक्ति है । दर्शनविशुद्धतादिके बिना यह सम्भव नहीं है।
प्रवचनभक्ति-सिद्धान्त अर्थात् बारह अंगोंको प्रवचन कहते हैं। 'प्रकृष्टस्य वचनं प्रवचनम्' श्रेष्ठ आत्माके वचनोंको प्रवचन कहा है। उनके प्रति भक्तिको प्रवचनभक्ति कहते हैं। इसमें भी शेष कारणोंका अन्तर्भाव रहता है।
प्रवचनवत्सलता-महाव्रती, देशसंयमी तथा असंयत सम्यग्दृष्टि में प्रेम रखना प्रवचनवत्सलता है । इससे ही तीर्थकरनामकर्मका बन्ध कैसे होता है-यह शंका नहीं करनी चाहिए, कारण महाव्रतादि आगमिक विषयोंमें गाढ़ानुरागका दर्शनविशुद्धतादिसे अविनाभाव है।
प्रवचनप्रभावनता-प्रवचन अर्थात् आगमको प्रभावना करनेका भाव प्रवचनप्रभावनता है । उत्कृष्ट प्रवचनप्रभावनाका दर्शनविशुद्धताके साथ अविनाभाव है।
अभीक्ष्णज्ञानोपयोगयुक्तता-अभीक्ष्ण अर्थात् 'बहुबार' भावश्रुत अथवा द्रव्यश्रुतमें उपयोगको लगाना अभीक्ष्णज्ञानोपयोगयुक्तता है। इससे तीर्थकरनामकर्मका बन्ध होता है। दर्शनविशुद्धतादिके बिना इसकी अनुपपत्ति है।।
इन सोलह कारणोंसे तीर्थकरनामकर्मका बन्ध होता है । अथवा सम्यग्दर्शनके होनेपर शेष कारणोंमें-से एक-दो आदिके संयोगसे भी बन्ध होता है। __इस कर्मके उदयसे सुर, असुर तथा मनुष्यलोकके द्वारा अर्चनीय, पूजनीय, वन्दनीय तथा-नमस्करणीय धर्म तीर्थके कर्ता जिन केवली होते हैं।
इस प्रकार पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस, सपर्याप्तक तथा भव्य सिद्धिकोंमें ओघवत् भंग जानना चाहिए।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org