SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 194
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पबंधायारो 1 चदुदंस० सादा० जस० उच्चा० पंचत० जह० एग० । उक्क० अंतो० । कोधादि०४पंचणा० चदुदंस० चदुसंज० पंचंत० जहण्णु० अंतो० । सेसाणं जह० एग० । उक्क० अंतो० । णवरि माणे तिष्णि संज० । मायाए दोणि संज० । लोभे० - पंचणा० चदुदंस० लोभसंज० पंचंतरा० जहण्णु० - अंतो० | सेसाणं जह० एग० । उक्क० अंतो० । अकसाई० - सादावे० ओघं । एवं यथाखादं । एवं चेव केवलणा० केवलदं० । णवरि जह० अंतो० । । २३. मदि० - सुद० - पंचणा० णवदंस० मिच्छत्तं सोलस० भयदु० तेजाक० वष्ण०४ अगु० उप० णिमि० पंचंत० तिष्णि भंगो ओघं । तिरिक्खगदि-तिगं ओघं । मणुसग० मणुसाणुपु० जह० एग० । उक्क० एकतीसं ० सादिरे० | देवगदिवेव्वियस० समचदु० वेउव्वि० अंगो० देवगदिपाओ० पसत्थ० सुभग-सुस्सर ६९ जघन्य और उत्कृष्ट दोनों अन्तर्मुहूर्त प्रमाण हैं ' । क्रोधादि चतुष्क में - ५ ज्ञानावरण, ४ दर्शनावरण, ४ संज्वलन, ५ अन्तरायका बन्धकाल जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है। शेपका जघन्य एक समय, उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त बन्धकाल है । विशेष यह है कि मानकपाय में तीन संज्वलन, माया कषाय में दो संज्वलनका बन्ध है । लोभकषायमें - ५ ज्ञानावरण, ४ दर्शनावरण, संज्वलन लोभ, ५ अन्तरायका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है। शेष प्रकृतियों का जघन्य एक समय, उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त बन्धकाल है । अकषायियोंमें-- सातावेदनीयका ओघवत् बन्धकाल है। इसी प्रकार यथाख्यात संयममें जानना चाहिए। केवलज्ञान, केवलदर्शन में भी ऐसा ही जानना चाहिए। इतना विशेष है कि यहाँ जघन्य बन्धकाल अन्तर्मुहूर्त है । २३. मत्यज्ञान, श्रुताज्ञानमें - ५ ज्ञानावरण, ६ दर्शनावरण, मिध्यात्व, १६ कषाय, भय, जुगुप्सा, तैजस, कार्मण, वर्ण ४, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण, ५ अन्तरायके तीन भंग ओघवत् जानना चाहिए । विशेषार्थ - अभव्यसिद्धिक जीवकी अपेक्षा अनादि अपर्यवसित काल है । भव्यसिद्धिकके मिध्यात्वका अनादि सपर्यवसित काल है। तीसरा भंग सादि सान्तका है । इसी तीसरे भंगमें जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट देशोन अर्धपुद्गल परावर्तन प्रमाण बन्धकाल है । ( ध० टी०, काल०, ३२४-३२५ ) तिर्यंचगति- त्रिकका ओघके समान है। मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वीका जघन्य एक समय, उत्कृष्ट साधिक ३१ सागर प्रमाण बन्धकाल है । देवगति, वैक्रियिक शरीर, समचतुरस्र संस्थान, वैक्रियिक अंगोपांग, देवगति प्रायोग्यानुपूर्वी, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, 1 १. " चउन्हं उवसमा केवचिरं कालादो होंति ? एगजीवं पडुच्च जहणेण एगसमयं उक्कस्सेण अंतोमुहुत्त चदुहं खवगा एगजीवं पडुच्च जहणेण अंतोमुहुत्तं उक्कस्सेण अंतोमुहुत्त ।" - षटू खं०, काल०, २२-२८ । २. "एगजीवं पडुच्च अणादिओ सपज्जवसिदो, सादिओ सपज्जवसिदो । जो सो सादिओ सपज्जवसिदो तस्स इमो णिद्देसो जहणेण अंतोमुहुत्त उवकस्सेण अद्धपोग्गलपरियट्ट देसूणं ।" - षट् खं०, काल०, ३१०-३१३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001388
Book TitleMahabandho Part 1
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages520
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy