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________________ ६८ महाबंध ० पलिदो ० देसू० । सादादि ज० [एग० उक० अंतो०] । आयुगचदुक्ख (कं) इत्थभंगो | तित्थयरं ओघं । णपुंसक० - पंचणा० णवदंसण० मिच्छत्त० सोलसक० भयदुगु • ओरालिय० तेजाक० वण्ण०४ अगु० उप० णिमि० पंचंतरा० जह० एग०, मिच्छतं खुद्रा० । उक्क० अनंतकालं असंखे० । पुरिस० मणुस० समचदु० वज्जरिसभसंघ ० मसाणु० पसत्थ० सुभग- सुस्सर-आदेज० जह० एग० । उक्क० तेत्तीसं सा० देसू० / तिरिक्खगदितिगं ओघं० । देवगदि ०४ जह० एग० उक्क० पुव्वकोडिदेसू० । पंचिंदिय० ओरालिय अंगो० परघादुस्सा० -तस०४ जह० एग० । उक्क० तेत्तीसं सा० सादिरे० । सादादीणं जह० एग० । उक्क० अंतो० । तित्थय० जह० एग० । उक्क० तिष्णि सागरो० सादिरे० । अवगद० - पंचणा० चदुदंस० चदुसंज० पु० जस० उच्चागो० पंचत० जह० एग० । उक्क० अंतो० । सादावे० ओघं । सुहुम संप० - पंचणा० सातादिकका जघन्यसे [ एक समय, उत्कृष्टसे अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है ] आयुचतुष्कका स्त्रीवेद के समान भंग है। तीर्थंकरका ओघवत् है । नपुंसक वेदमें - ५ ज्ञानावरण, ६ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, १६ कपाय, भय, जुगुप्सा, औदारिक- तैजस- कार्मण शरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण तथा पाँच अन्तरायोंका बकाल जघन्यसे एक समय है, किन्तु मिध्यात्वका क्षुद्रभव प्रमाण है । इनका उत्कृष्ट बन्धकाल असंख्यात पुद्गल परावर्तन है । पुरुषवेद, मनुष्यगति, समचतुरस्त्र संस्थान, वज्रपभसंहनन, मनुष्यानुपूर्वी, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर, आदेयका जघन्य बन्धकाल एक समय, उत्कृष्ट बन्धकाल कुछ कम तैंतीस सागर प्रमाण है । विशेषार्थ - मोहनीयको २८ प्रकृतियोंकी सत्तावाला कोई जीव मरण कर सप्तम पृथ्वी में उत्पन्न हुआ। छह पर्याप्तियोंको पूर्ण कर तथा विश्राम ले, विशुद्ध होकर, सम्यक्त्व को प्राप्त किया, एवं आयुके अन्तर्मुहूर्त शेष रहनेपर मिथ्यात्वको प्राप्त कर आगामी भवी आयु किया । अन्तर्मुहूर्त विश्राम करके मरण किया। उसके छह अन्तर्मुहूर्त कम ३३ सागरप्रमाण बन्धकाल होगा । ( ० टी०, काल०, ४४३ ) तिर्यंचगतित्रिकका ओघ के समान भंग है । देवगति ४ का जघन्य बन्धकाल एक समय, उत्कृष्ट बन्धकाल कुछ कम पूर्व कोटि है। पंचेन्द्रिय, औदारिक अंगोपांग, परघात, उच्छ्वास, त्रस ४ का जघन्य बन्धकाल एक समय, उत्कृष्ट साधिक तेंतीस सागर है । साता आदिक प्रकृतियोंका जघन्य बन्धकाल एक समय, उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है । तीर्थ कर प्रकृतिका जघन्य बन्धकाल एक समय, उत्कृष्ट साधिक तीन सागर है । अपगत वेद में-५ ज्ञानावरण, पंच निद्राओंका अभाव होनेसे शेष चार दर्शनावरण, ४ संज्वलन, पुरुषवेद, यशःकीर्ति, उच्चगोत्र, ५ अन्तरायका जघन्य बन्धकाल एक समय, उत्कृष्ट अन्तमुहूर्त है । सातावेदनीयका ओघवत् है । सूक्ष्मसाम्पराय संयम में-५ ज्ञानावरण, ४ दर्शनावरण, सातावेदनीय, यशःकीर्ति, उच्चगोत्र, ५ अन्तरायका जघन्य एक समय, उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त बन्धकाल है । विशेषार्थ - उपशम श्रेणीकी अपेक्षा यह बन्धका काल कहा गया है । क्षपककी अपेक्षा १. नवसयवेदेसु मिच्छादिट्टी केवचिरं कालादो होति ? एगजीवं पडुच्च जहणेण अंतोमुहुत्त, उक्कस्सेण अणंतकालमसंखेज्जपोग्गलपरियहं ।"-पट खं०, का०,२४०-४२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001388
Book TitleMahabandho Part 1
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages520
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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