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________________ ६७ पयडिबंधाहियारो जह० एग० । उक्क० पणवण्णं पलिदोवमं देसू० । चदुआयु ओघं । देवगदि०४ जह० एग० । उक्क० तिणिपलिदोप० देसू० । ओरालिय० परघादुस्सास० बादर-पजत्तपत्तेय० जह० एग० । उक्क० पणवण्णं पलिदो० सादिरे० । तित्थय० जह० एग । उक्क० पुवकोडिदेसू० । पुरिसवे०-पंचणा० णवदंस० मिच्छत्त० सोलसक० भयदुगु तेजाकम्म० वण्ण०४ अगु० उप० णिमि० पंचंतरा० जह० अंतो० । उक्क० सागरोपमसदपुध० । पुरिसवेद ओघं। मणुसगदिपंचगं जह० एग० । उक० तेत्तीसं सा० । देवगदि०४ जह० एग० । उक० तिण्णि पलिदोप० सादिरे | पंचिंदिय-परघादुस्सा० तस०४ जह० एग०। उक्क० तेवढिसागरोवमसदं०(द०)। समचदु०पसत्थवि०सुभग-सुस्सर० आदेज० उच्चा० जह० एग० । उक्क० बेछावद्विसाग० सादि० तिण्णि सुस्वर, आदेय, उच्चगोत्रका जघन्य बन्धकाल एक समय, उत्कृष्ट देशोन ५५ पल्योपम प्रमाण है। विशेषार्थ - एक जीव ५५ पल्य स्थितिवाली देवी रूपसे उत्पन्न हुआ। उसने छह पर्याप्ति पूर्ण की, अन्तर्मुहूर्त विश्राम किया, पश्चात् अन्तर्मुहूर्त में विशुद्ध होकर वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त किया । पश्चात् जीवन पूर्ण करके मरण किया । अतः उसके तीन अन्तर्मुहूर्त कम ५५ पल्योपम प्रमाणकाल सम्यक्त्वयुक्त स्त्री-वेदका है, उसमें पुरुषवेदादिका बन्ध करनेके कारण उनका बन्धकाल देशोन ५५ पल्योपम कहा है । चार आयुका ओघवत् जानना चाहिए । देवगति चतुष्कका जघन्य एक समय, उत्कृष्ट कुछ कम तीन पल्योपम बन्धकाल है। औदारिक शरीर, परघात, उच्छ्वास, बादर, पर्याप्तक, प्रत्येकका जघन्य एक समय, उत्कृष्ट साधिक ५५ पल्योपम बन्धकाल है। तीर्थकर प्रकृतिका जघन्य बन्धकाल एक समय, उत्कृष्ट कुछ कम पूर्वकोटि प्रमाण है। पुरुषवेद में-५ ज्ञानावरण, : दर्शनावरण, मिथ्यात्व, १६ कषाय, भय, जुगुप्सा, तेजस, कार्मणं शरीर, वर्ण४, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण, ५ अन्तरायका बन्धकाल जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट से सागरोपम शतपृथक्त्व है । पुरुषवेदका बन्धकाल ओघवत् है। विशेष - इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है कि स्त्री और नपुंसकवेदी जीवोंमें बहुत बार भ्रमण करता हुआ कोई एक जीव पुरुषवेदी हुआ, सागरोपम शत पृथक्त्वकाल पर्यन्त भ्रमण करके अविवक्षित वेदको प्राप्त हो गया । (ध० टी०,का० पृ० ४४१) । मनुष्यगतिपंचक अर्थात् मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, वनवृषभनाराच संहनन, औदारिक शरीर, औदारिक आंगोपांगका जघन्य एक समय, उत्कृष्ट ३३ सागर प्रमाण है। देवगति ४ का जघन्य एक समय, उत्कृष्ट साधिक तीन पल्योपम है । पंचेन्द्रिय, परघात, उच्छवास, स, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकका जघन्य बन्धकाल एक समय, उत्कृष्ट १६३ सागरोपम है । समचतुरस्र संस्थान, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर, आदेय, उच्चगोत्रका जघन्य एक समय, उत्कृष्ट बन्धकाल कुछ कम तीन पल्याधिक छयासठ सागरोपम जानना चाहिए। १. "इत्थिवेदेसु असंजदसम्मादिट्टी केवचिरं कालादो होति ? एगजीवं पडुच्च जहण्णण अंतोमुहत्त उक्कस्सेण पणवणपलिदोवमाणि देसूणाणि । सासणसम्मादिट्टी ओघं । एगजीवं पडुच्च जहणेण एगसमओ।" षट् खं०,का०,५,७, २३०, २३४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001388
Book TitleMahabandho Part 1
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages520
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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