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________________ ८८ महाबंधे सेसाणं सादादीणं जह० एग० उक्क० अंतो० । कम्मइगका०-देवगदि०४ तित्थय० जह० एग०, उक्क० बेसम० । सेसाणं सव्वपगदीणं जह० एग० उक्क० तिण्णिसम । २२. इत्थिवेद०-पंचणा०णवदंस मिच्छत्तं० सोलसक० भयदुगु तेनाक० (तेजाक०) वण्ण०४ अगु० उप० णिमि० पंचंतरा० जह० एग०, उक्क० पलिदोपमसदपुधत्तं । णवरि मिच्छ० जह० अंतो० । सादासादा० छण्णंक० (छण्णोक०) दोगदि-चदुजादि-आहारदुगं पंचसंठाण-पंचसंघ दो-आणु० आदा-वुओ०अप्पसत्थ० थावर०४ थिरादिदोयुग० दुभग-दुस्सर-अणादेज० जस० अअस० णीचागो० जह० एग०, उक० अंतो० । पुरिस० मणुसगदि० पंचिंदि० समचदु० ओरालिय० अंगो० बजरिस० मणुसाणु-पसत्थ० तस-सुभग-सुस्सर-आदेज० उच्चा० बन्धकाल अन्तर्मुहूर्त है। विशेष यह है कि तीर्थकर प्रकृतिका जघन्य बन्धकाल एक समय', उत्कृष्ट बन्धकाल अन्तर्मुहूत है। शेष सातादि प्रकृतियोंका जघन्य बन्धकाल एक समय, उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है। कार्मण'काययोगमें - देवगति ४, तीर्थकरका जघन्य एक समय, उत्कृष्ट दो समय प्रमाण बन्धकाल है । शेप सर्व प्रकृतियोंका जघन्य एक समय उत्कृष्ट तीन समय है। विशेषार्थ - सासादन या असंयतसम्यक्त्वी कार्मणकाययोगियोंका सूक्ष्म एकेन्द्रियों में उत्पन्न होनेका अभाव है । वृद्धि और हानिके क्रमसे विद्यमान लोकान्तमें भी इनकी उत्पत्ति नहीं होती । इससे उत्कृष्ट दो समय कहा है। . तीन समय प्रमाण बन्धकाल इस प्रकार है-एक सूक्ष्म एकेन्द्रियजीव अधस्तन सूक्ष्म वायुकायिकोंमें तीन विग्रहवाले मारणान्तिक समुद्घातको प्राप्त हुआ। पुनः अन्तर्मुहूर्तसे छिन्नायुष्क होकर उत्पन्न होने के प्रथम समयसे लगाकर तीन विग्रहामें तीन समय तक कामणकाययोगी रहकर तथा चौथे समयमें औदारिकमिश्र काययोगी हो गया। तीन विग्रह करनेकी दशा इस प्रकार है। ब्रह्मलोकवर्ती प्रदेशपर वाम दिशासम्बन्धी लोकके पर्यन्त भागसे तिरछे दक्षिणकी ओर तीन राजू प्रमाण जा, पुनः १०३ राजू नीचेकी ओर इषुगतिसे जाकर, पश्चात् सामनेकी ओर चार राजू प्रमाण जाकर कोणयुक्त दिशामें स्थित लोकके अन्तवर्ती सूक्ष्मवायुकायिकोंमें उत्पन्न होनेवालेके ३ विग्रह होते हैं। (ध० टी०,का० ४३४-४३५) २२. स्त्रीवेदमें-५ ज्ञानावरण, ९ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, १६ कपाय, भय, जुगुप्सा, तैजस, कार्मण शरीर, वर्ण ४, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण, ५ अन्तरायका जघन्य बन्धकाल एक समय, उत्कृष्ट पल्योपम शतपृथक्त्व है। विशेष यह है कि मिथ्यात्वका बन्धकाल जघन्यसे अन्तमुहूर्त है। साता असाता वेदनीय, ६ नोकपाय, दो गति, ४ जाति, आहारकद्विक, पंच संस्थान, ५ संहनन, दो आनुपूर्वी, आताप, उद्योत, अप्रशस्तविहायोगति, स्थावर४, स्थिरादि दोयगल.दर्भग.दस्वर.अनादेय.यशःकीर्ति अयशःकीर्ति.नीचगोत्रका जघन्य बन्धकाल एक समय, उत्कृष्टसे अन्तमुहूर्त है । पुरुष वेद, मनुष्यगति, पंचेन्द्रिय जाति, समचतुरस्रसंस्थान, औदारिक अंगोपांग, वनवृषभसंहनन, मनुष्यानुपूर्वी, प्रशस्तविहायोगति, त्रस, सुभग, १. "आहारमिस्सकायजोगीसु पमत्तसंजदा केवचिरं कालादो होति ? एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं उक्कस्सेण अंतोमुहुत्त ।"-षट खं०, काल०,२१३-१६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001388
Book TitleMahabandho Part 1
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages520
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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