SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 190
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६५ पयडिबंधाहियारो खुद्धा. तिसमऊ. उक्क० अंतो०। दो आयु ओघं । देवगदि०४ तित्थय० जहण्णु० अंतो० । सेसाणं सादासादादीणं जह० एय० उक० अंतो०। वेउव्वियमिस्स०पंचणा०णवदंस०मिच्छत्त०सोलसक०भयदुगुं०ओरालियतेजाक० वण्ण०४ अगु०४ बादर-पजत्त-पत्तेय-णिमि०-तित्थय०पंचंत० जहण्णु० अंतो० । सेसाणं सादादीणं जह० एग. उक्क० अंतो। आहारमिस्स०-पंचणा०छदंसण-चदुसंजल-पुरिस०. भयदु० देवगदि० पंचिं० वेउब्धिय-तेजाक० समचदु० वेउव्यिय-अंगो० वण्ण०४ देवाणु० अगु०४ पसत्थ०-तस०४-सुभग-सुस्स०-आदेज-णिमिणं तित्थयं० ( य० ) उच्चागो० पंचंत० जहण्णु० अंतो० । णवरि तित्थय० जह० एग० उक्क० अंतो० । विशेषार्थ-एकेन्द्रिय जीव अधोलोकके अन्तमें तीन मोड़े करके क्षुद्रभव-प्रमाण आयुवाला सूक्ष्म वायुकायिक जीव हुआ। वहाँ ३ समय कम क्षुद्रभवग्रहण काल तक लब्ध्यपर्याप्तक हो जीवित रहकर मरा। पुनः विग्रह करके कार्मण काययोगी हुआ। इस प्रकार तीन समय कम भुद्रभवग्रहण प्रमाण काल सिद्ध हुआ । उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त प्रमाण इस प्रकार जानना चाहिए कि कोई जीव लब्ध्यपर्याप्तकोंमें उत्पन्न होकर संख्यात भवग्रहण प्रमाण उनमें परावर्तन करके पुनः पर्याप्तकोंमें उत्पन्न होकर औदारिककाययोगी बन गया। इन सब संख्यातभवोंका काल मिलकर भी अन्तर्मुहूर्त के अन्तर्गत ही रहता है। (ध० टी० का० पृ० ४१६) दो आयुमें ओघवत् जानना चाहिए। देवगति ४ और तीर्थंकरका जघन्य तथा उत्कृष्ट बन्धकाल अन्तर्मुहूर्त है। शेष साता आदि प्रकृतियोंका जघन्य बन्धकाल एक समय तथा उत्कृष्ट बन्धकाल उत्कृष्ट अन्तमुहत प्रमाण है। वैक्रियिकमिश्र काययोगमें-५ ज्ञानावरण, ९ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, १६ कषाय, भय, जुगुप्सा, औदारिक-तैजस-कार्मण' शरीर, वर्ण ४, अगुरुलघु ४, बादर , पर्याप्त, प्रत्येक, निर्माण, तीर्थकर तथा पाँच अन्तरायका जघन्य तथा उत्कृष्ट बन्धकाल अन्तर्मुहूर्त है । विशेषार्थ-एक द्रव्यलिंगी साधु उपरिमप्रैवेयकमें दो विग्रह करके उत्पन्न हो सर्वलघु अन्तर्मुहूते में पर्याप्तक हुआ अथवा एक भावलिंगी मुनि दो विग्रह करके सर्वार्थसिद्धिमें उत्पन्न हुआ और सर्वलघु अन्तमुहूर्तमें पर्याप्त हुआ। इस प्रकार वैक्रियिकमिश्र काययोगमें जघन्य बन्धकाल अन्तर्मुहूर्त है। उत्कृष्ट बन्धकाल भी अन्तमुहूर्त प्रमाण इस प्रकार है कि कोई मिथ्यात्वी जीव सातवें नरकमें उत्पन्न हुआ और सबसे बड़े अन्तर्मुहूर्त प्रमाण कालके अनन्तर पर्याप्त हुआ। इसी प्रकार एक नरक-बद्धायुष्क जीव सम्यक्त्वी हो दर्शनमोहका क्षपण करके मरण कर सबसे बड़े अन्तर्मुहूर्त कालमें पर्याप्तियोंकी पूर्णताको करता है। यहाँ दोनोंमें जघन्य कालसे दोनोंका उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा है। (ध० टी०,का०, पृ० ४२८-४२६) शेष साता आदि प्रकृतियोंका जघन्य बन्धकाल एक समय, उत्कृष्ट अन्तर्मुहूत है । आहारकमिश्र काययोगमें - '५ ज्ञानावरण, ६ दर्शनावरण, ४ संज्वलन, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, देवगति, पंचेन्द्रियजाति, वैक्रियिक, तैजस- कार्मण शरीर, समचतुरस्र संस्थान, वैक्रियिक अंगोपांग, वर्ण ४, देवानुपूर्वी, अगुरुलघु ४, प्रशस्त विहायोगति, त्रस ४, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण, तीर्थकर, उच्चगोत्र तथा ५ अन्तरायोंका जघन्य तथा उत्कृष्ट Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001388
Book TitleMahabandho Part 1
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages520
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy