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पयडिबंधाहियारो सेसाणं पगदीणं बंधगा जीवा सरिसा विसेसा० । सम्मामिच्छ०-सव्वत्थोवा देवगदिबंधगा जीवा, वेउवि० बंधगा जीवा। साद-हस्स-रदि-जस० बंधगा जीवा असंखे० गुणा । असाद-अरदि-सो० अज्ज. बंधगा जी० संखेजगु० । मणुसग० ओरालि. बंधगा जी० विसे० । सेसाणं पगदीणं बंधगा जीवा सरिसा विसे । मिच्छादिष्टि अभवसिद्धिभंगो।
३४८. सण्णीसु--सम्बत्थोवा आहार० बंधगा जीवा । मणुसायु-बंधगा जी० असंखे० गुणा । णिरयायु-बं० जीवा असंखे० गुणा। देवायु-बंधगा असंखे० गुणा । णिरयगदि-बंधगा जी० संखेजगुणा । तिरिक्खायुबंधगा जो० असंखे० गुणा । देवगदिबंधगा जी० संखेजगु० । वेउवि० बंधगा जी. विसे० । उच्चागो० बंधगा जी० संखेजगु० । मणुसग० बंधगा जी० संखेजगु० । पुरिस० बंधगा जीवा संखेजगु० । इथिवे. बंधगा जी० संखेजगु० । जस० बंधगा जी० संखे० गु० । हस्स-रदि-बंधगा जी.
शेष प्रकृतियोंके बन्धक जीव समान रूपसे विशेषाधिक हैं।
विशेषार्थ-नरकायुकी बन्ध-व्युच्छित्ति मिथ्यात्व गुणस्थानमें होनेसे सासादन गुणस्थानके वर्णनमें नरकायुका कथन नहीं आया है।
__ सम्यग्मिथ्यात्वमें - देवगति के बन्धक जीव सर्वस्तोक हैं। चैक्रि यिक शरीर के बन्धक जीव भी इसी प्रकार हैं। साता वेदनीय, हास्य, रति, यशाकीर्तिके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। असाता, अरति, शोक, अयश कीर्त्तिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। मनुष्यगति,
औदारिक शरीरके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। शेष प्रकृतियोंके बन्धक जीव समान रूपसे विशेषाधिक हैं।
विशेषार्थ-मिश्रगुणस्थानमें आयुके बन्धका निपेध है-"मिस्सूणे पाउस्स य" (गो० क० गा० ९२)। इससे यहाँ आयुके बन्धका वर्णन नहीं किया गया है। इस गुणस्थानमें मरणका निषेध है। मिश्रगुणस्थानके पूर्व जिस सम्यक्त्व या मिथ्यात्व भावमें आयु बन्ध हुआ था, उसी परिणाममें मरण होता है। कुछ आचार्य कथन करते हैं कि ऐसा नियम नहीं है।
मिथ्यादृष्टिमें - अभव्य सिद्धिकोंके समान भंग हैं।
३४८. संज्ञीमें - आहारक शरीर के बन्धक जीव सर्वस्तोक हैं। मनुष्यायुके बन्धक जीव असंख्यातगणे हैं। नरकायके बन्धक जीव असंख्यात गुणे हैं। देवायके बन्धक असंख्यातगणे हैं। नरकगति के बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । तियंचायुके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। देवगतिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। वैक्रियिक शरीरके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। उच्च गोत्रके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। मनुष्यगतिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। पुरुषवेदके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। स्त्रीवेदके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। यशःकीर्तिके
१. "सम्मत्तमिच्छपरिणामेसु जहिं असुगं पुरा बद्धं ।
तहिं मरणं मरणंतसमुग्धादो वि य ण मिस्सम्मि ॥" -गो० जी०,गा०२४।
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