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पयडिबंधाहियारो
२७५ अबंधगा सव्वद्धा । दो-आयु बंधगा केवचिरं? जहण्णेण अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो। अबंधगा सव्वद्धा । सेसाणं पत्तगेण सव्वे विगप्पा सव्वद्धा । साधारणेण अबंधगा णस्थि । एवं सव्वणेरडगाणं ।
२१६. तिरिक्खेसु-चदुआयु ओघं । सेसाणं सव्वे विगप्पा सम्बद्धा । एवं एइंदि० पुढवि० आउ० तेउ० वाउ० वणप्फदि-पत्तेय० तेसिं बादर-बादर-अपजत्त-सव्वसुहुम० वणप्फदि-णिगोद-मदि० सुद० असंजद० तिण्णि लेस्सा० अब्भवसि० मिच्छादिट्टिअसण्णित्ति ।
२२०. पंचिंदिय-तिरिक्खेसु चदुआयु जहण्णेण अंतोमुहुत्तं उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो । अबंधगा सव्वद्धा । सेसाणं सव्वे भंगा सम्बद्धा ।
अन्तर्मुहूर्त होते हैं । अबन्धक सर्वकाल होते हैं। दो आयु अर्थात् मनुष्य-तियंचायुके बन्धक कितने काल तक होते हैं ? जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्टसे पल्यके असंख्यातवें भाग होते हैं । . अबन्धक सर्वकाल होते हैं। शेष प्रकृतियों में सर्व विकल्प पृथक्-पृथक् रूपसे सर्वकालरूप होते हैं । साधारणसे अबन्धक नहीं हैं। इसी प्रकार सर्व नारकियोंमें जानना चाहिए ।
२१६. 'तिर्यंचगति में चार आयुके बन्धक, अबन्धक कितने काल तक होते हैं ? ओघके समान जानना चाहिए। शेष सर्व विकल्प सर्वकाल प्रमाण हैं। एकेन्द्रिय, पृथ्वीकायिक, जलकायिक, तेजकायिक, वायुकायिक, वनस्पति, प्रत्येक तथा इनके बादर तथा बादर अपर्याप्तकोंमें, सर्व सूक्ष्मोंमें, वनस्पति निगोदोंमें, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, कृष्गादिलेश्यात्रय, अभव्यसिद्धिक, मिथ्यादृष्टि असंज्ञी पर्यन्तमें पूर्ववत् जानना चाहिए ।
___२२०. पंचेन्द्रिय तिर्यचोंमें-चार आयुके बन्धक जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्टसे पल्यके असंख्यातवें भाग पर्यन्त होते हैं ; अबन्धक सर्वकाल होते हैं। शेष प्रकृतियोंके सर्व विकल्प सर्वकाल जानना चाहिए।
१. "तिरिक्खगदीए तिरिक्खेस मिच्छादिट्रो केवचिरं कालादो होंति ? णाणाजीवं पडुच्च सन्वता।" -षटखं०,का०४७। २. "एइंदिया केवचिरं कालादो होंति ? णाणाजीवं पडुच्च सम्वद्धा।" -सू० १०७॥ "पुढविकाइया-आउकाइया-तेउकाइया-वाउकाइया केवचिरं कालादो होंति ? णाणाजीवं पडुच्च सम्वद्धा।" -सू० १३९ । 'बादरपुढविकाइय-बादरआउकाइय-बादरतेउकाइय-बादरवणप्फदिकाइय-पत्तेयसरीर-अपज्जत्ता केवचिरं कालादो होंति ? णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा।” (१४८) "सुहुमपुढविकाइया सुहुमआउकाइया सुहुमतेउकाइया सुहमवाउकाइया सुहमवणंप्फदिकाइया सुहमणियोदजीवा सुहुमेइंदिय पज्जत्तअपज्जत्ताणं भंगो।' -सू० १५१। "णाणाणुवादेण मदि अण्णाणि-सुदअण्णाणीसु मिच्छादिट्ठी ओघं।" (२६०) "असंजदेसु मिच्छादिट्टप्पहुडि जाव असंजदसम्मादिट्ठि ओघं ।" (२७५) । "किण्हलेस्सिय-णीललेस्सिय-काउलेस्सिएसु मिच्छादिट्ठी केवचिरं कालादो होंति ? णाणाजीवं पडुच्च सम्वद्धा।" (२८३)। "अभवसिद्धिया केवचिरं कालादो होंति ? णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा।" (३१५) । "मिच्छादिट्टी ओघं ।" (३२९)। "असण्णो केवचिरं कालादो होति? णाणाजीवं पडुच्च सम्वद्धा।" (३३४)। ३. तिरिक्खगदीए तिरिक्खा पंचिदिय, तिरिक्खा पंचिदियतिरिक्खपज्जत्ता पंचिदिय तिरिक्खजोणणी पंचिदिय तिरिक्ख अपज्जत्ता..केवचिरं कालादो होंति ? सम्बद्धा। (४,५)
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