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________________ ११२ महाबंधे दंसणा ० सिया बंधगो सिया अबंधगो, तिष्णि दंसणा० पियमा बंधगो । एवं तिष्णि दंसणा | सादं बंधतो असादस्त अ० | असादं बंध साद० अ० । ० ५६. मिच्छत्तं बंधतो सोलसक० - भयदुगुं० णियमा बंधगो । इत्थवेदं सिया बंधगो, सिया अबंधगो । पुरिसवेदं सिया अबंधगो [बंधगो], सिया अबंधगो । पुंस० सिया बंध० सिया अबंध० । तिष्णि वेदाणं एकतरं बंधगो, ण चेव अबंध० । इस्सरदि सिया बंध० सिया अबंध० । अरदि-सोगा० सिया बंध० सिया अबंध० | दोष्णं युगलाणं एकतरं बंधगो ण चैव अबंध० । ५७. अनंताणुबंधिकोधं बंधतो मिच्छत्तं सिया बंध० सिया अनं०, पण्णारसक ०भयदुर्गु० णियमा बंधगो । इत्थवेदं सिया बं०, पुरिस० सिया बं०, णपुंस० सिया बं० । तिष्णि वेदाणं एकतरं बंधओ ण चैव अबंध० । अरदिसोगं सिया बंध० । दोष्णं युगला० एकतरं बंध०, तिणि कसायाणं । हस्सरदि सिया बं० । ण चैव अबं० । एवं विशेषार्थ-चक्षुदर्शनावरणका बन्ध सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानपर्यन्त होता है और पंच निद्राओंका अपूर्वकरणपर्यन्त होता है, इस कारण चक्षुदर्शनावरण के बन्धकके निद्रादिका बन्ध विकल्प रूपसे कहा है । साताका बन्ध करनेवाला असाताका अबन्धक है । असाताका बन्धक साताका अन्धक है I विशेषार्थ- - साता और असाता परस्पर प्रतिपक्षी प्रकृतियाँ हैं । अतः एकके बन्ध होते समय दूसरीका अबन्ध होगा । ५६. मिध्यात्वका बन्ध करनेवाला - सोलह कषाय, भय, जुगुप्साका नियमसे बन्धक है | स्त्रीवेदका स्यात् ( कथंचित् ) बन्धक है, स्यात् अबन्धक है । पुरुषवेदका स्यात् बन्धक है, स्यात् अबन्धक है। नपुंसकवेदका स्यात् बन्धक है, स्यात् अबन्धक है । तीन वेदोंमें से अन्यतमका बन्धक है; अबन्धक नहीं है । हास्य, रतिका स्यात् बन्धक है, स्यात् अबन्धक है | अरति शोकका स्यात् बन्धक है, स्यात् अबन्धक है । दोनों युगलों में से अन्यतरका बन्धक है, अबन्धक नहीं है । ५७. अनन्तानुबन्धी क्रोधका बन्ध करनेवाला मिध्यात्वका स्यात् बन्धक है, स्यात् अन्ध है । किन्तु शेष १५ कषाय, भय, जुगुप्साका नियमसे बन्धक है । विशेषार्थ - अनन्तानुबन्धीका सासादनपर्यन्त बन्ध होता है, किन्तु मिथ्यात्वका प्रथम गुणस्थान पर्यन्त । अतः अनन्तानुबन्धीके बन्धकके साथ मिध्यात्वका बन्ध हो भी और न भी हो । स्त्रोवेदका स्यात् बन्धक है, पुरुषवेदका स्यात् बन्धक है, नपुंसक वेदका स्यात् बन्धक है, तीनों वेदों में से किसी एकका बन्धक है; अबन्धक नहीं है । हास्य रतिका स्यात् बन्धक है, अरति शोकका स्यात् बन्धक है । दो युगलों में से किसी एक युगलका बन्धक है; अबन्धक नहीं है । इसी प्रकार अनन्तानुबन्धी मान, माया तथा लोभके बन्धक में जानना चाहिए । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001388
Book TitleMahabandho Part 1
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages520
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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