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[ सणिणयासपरूवणा] ५४. सण्णियासो दुविधो सस्थाणसण्णियासो चेव परस्थाणसणियासो चेव । सत्थाणसणियासे पगदं । दुविधो णिद्देसो ओघे० आदेसे० ।
५५. ओघे०-आभिणिबोधिय-णाणावरणीयं बंधंतो चदुण्णं णाणावरणीयाणं णियमा बंधगो । एवं एकमेक्कस्स बंधगो। णिहाणि बंधतो अट्ठदंसणा० णियमा बंधः । एवं थीणगिद्धितियस्स । णि बंधं० थीणगिद्धितियं सिया बंधगो. सिया अबंधगो, पंचदंसणा० णियमा बंधगो। एवं पचला० । चक्खुदंसणा० बंध० पंच
[ सन्निकर्षप्ररूपणा] ५४. सन्निकर्प दो प्रकारका है, एक स्वस्थान सन्निकर्ष और दूसरा परस्थान सन्निकर्ष है । यहाँ स्वस्थान सन्निकर्प प्रकृत है। उसका ओघ और आदेशकी अपेक्षा दो प्रकारसे निर्देश करते हैं।
विशेषार्थ-स्वस्थान सन्निकर्षमें एक साथ बँधनेवाली एकजातीय प्रकृतियोंका ग्रहण किया गया है। परस्थान सन्निकर्ष में एक साथ बँधनेवाली सजातीय एवं विजातीय प्रकृतियोंका ग्रहण किया गया है।
५५. ओघसे-आभिनिबोधिक ज्ञानावरणका बन्ध करनेवाला शेष श्रुतादि ज्ञानावरणचतुष्टयको नियमसे बाँधता है। इसी प्रकार एक प्रकृतिका बन्ध करनेवाला ज्ञानावरणकी शेष प्रकृतियोंका बन्धक है।
विशेषार्थ-ज्ञानावरणकी मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय, केवलज्ञानावरणरूप किसी भी प्रकृतिका बन्ध होनेपर शेष चार प्रकृतियोंका भी नियमसे बन्ध होगा। ऐसा नहीं है कि अवधिज्ञानावरणका तो बन्ध होता रहे और मनःपर्ययज्ञानावरणादिका बन्ध न हो। पाँचों ज्ञानावरणके भेदोका सदा एक साथ बन्ध होता रहता है ।
निद्रानिद्राका बन्ध करनेवाला ८ दर्शनावरणका नियमसे बन्धक है। इसी प्रकार स्त्यानगृद्धित्रिकमें भी समझना चाहिए। निद्राका बन्धक स्त्यानगृद्धि त्रिकका बन्धक है भी
और नहीं भी है। किन्तु वह दर्शनावरणपंचक अर्थात् चक्ष-अचश्न-अवधि केवलदर्शनावरण तथा प्रचलाका नियमसे बन्धक है।
विशेषार्थ-स्त्यानगृद्धित्रिकका बन्ध सासादन गुणस्थान तक होता है और निद्रा प्रकृतिका अपूर्वकरण गुणस्थानके प्रथमभागपर्यन्त बन्ध होता है, अतः निद्राका बन्ध होनेपर स्त्यानगृद्धित्रिकका बन्ध होना अनिवार्य नहीं है । हो भी सकता है, नहीं भी होवे ।
निद्राके समान प्रचलाका भी वर्णन जानना चाहिए । चक्षुदर्शनावरणका बन्धक जीव निद्रादिक पाँच दर्शनावरणका कथंचित् बन्धक है कथंचित् अबन्धक है, किन्तु अचक्षु-अवधिकेवलदर्शनावरणका नियमसे बन्धक है। इसी प्रकार अचक्षु-अवधि-केवलदर्शनावरणमें जानना चाहिए।
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