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________________ [ भागाभागाणुगम पावणा ] १४७. भागाभागाणुग० दु०, ओ० आ० । त ओघे० पंचणा० णवदंसणा० मिच्छत्त० सोलसक० भयदु० तेजाकम्म० वण्ण०४ अगु० उप० णिमि० पंचतराइगाणं बंधगा सव्वजीवाणं केवडियो भागो ? अणंता भागा। अबंधगा सयजीवाणं केव० ? अणंतभा० । सादबंधगा सयजी० केव० ? संखेज्ज० भागो० । अबंध० सव्व० संखेज्जा भागा। असाद [बंधगा] सबजी० केव० ? संखेज्जा० भागा। अबंधगा सव्व० केव० ? संखेज्ज० [भा] गो० ( ? ) दोण्णं वेदणीयाणं बंध० सव्वजी० केव० ? अणंता भागा। अबंध० सव्व० केव० ? अणंतभागो । एवं सादभंगो इथि० पुरिस० हस्सरदि-चदुजाति-पंचसंठा० तस०४ थिरादिपंचगं उच्चागोदं च । असादभंगो णपुंस० अरदिसोगएइंदि०-हुंडसंठा० थावरादिचदु०४ अथिरादिपंचगं णीचागोदाणं च । सत्तणोक० [ भागाभागानुगम प्ररूपणा ] १४७. भागाभागानुगमका ओघ और आदेशसे दो प्रकारका निर्देश करते हैं। विशेषार्थ-भागाभागानुगमके शब्दार्थपर धवलाटीकामें इस प्रकार प्रकाश डाला गया है - "अनन्तवाँ भाग, असंख्यातवाँ भाग और संख्यातवाँ भाग इनकी भाग संज्ञा है । अनन्त बहुभाग, असंख्यात बहुभाग, संख्यात बहुभाग इनकी अभाग संज्ञा है। 'भाग और अभाग' इस प्रकार द्वन्द्व समास होकर भागाभाग पद निष्पन्न हुआ। उन भागाभागोंका जो ज्ञान है, वह भागाभागानुगम है।' ओघसे-५ ज्ञानावरण, ९ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, १६ कषाय, भय, जुगुप्सा, तैजस, कार्मण, वर्ण ४, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण तथा ५ अन्तरायके बन्धक सब जीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्त बहुभाग हैं। अबन्धक सर्वजीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं। साता वेदनीयके बन्धक सब जीवों के कितने भाग हैं ? संख्यातवें भाग हैं। अबन्धक सर्व जीवोंके संख्यात बहुभाग हैं। असाताके बन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं ? संख्यात बहुभाग हैं । अबन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं ? संख्यातवें भाग हैं। दोनों वेदनीयके बन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्त बहुभाग हैं । अबन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं ? स्त्रीवेद, पुरुषवेद, हास्य, रति, ४ जाति, ५ संस्थान, बस ४, स्थिरादि ५ तथा उच्चगोत्रका साताके समान भंग है । नपुंसकवेद, अरति, शोक, एकेन्द्रिय जाति, हुंडक संस्थान, स्थावरादि ४, अस्थिरादि ५, नीचगोत्रका असाताके समान भंग है । सात नोकपाय, ५ जाति, १. अणंतभाग-असंखेज्जदिभाग-संखेज्जदिभागाणं भागसण्णा, अणंताभागा, असंखेज्जाभागा, संखेज्जाभागा एदेसिमभागसण्णा। भागो च अभागो च भागाभागा, तेसिमणुगमो भागाभागाणगमो ॥ --खु००, टीका,पृ० ४९५॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001388
Book TitleMahabandho Part 1
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages520
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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