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पडबंधाहियारो
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१४६. अणाहारमेसु - पंचणा० णवदंस० मिच्छत्त० सोलसक० भयदु० ओरालि० तेजाक० वण्ण०४ अगु०४ आदावुज्जो० णिमि० तित्थय० पंचत० अस्थि बंधगा य अधाय । सादं अत्थि बंधगा य अबंधगा य । असादं अस्थि बंधगा य अबंधगा य । दोणं वेदणीयाणं अत्थि बंधगा य अबंधगा य । एवं सेसाणं पगदीणं एदेण बीजेण साधेदुण भाणिदव्वं ।
एवं णाणाजीवेहि भंगविचयं समत्तं
विशेषार्थ - वेदनीयके अबन्धक अयोगकेवली गुणस्थानमें पाये जाते हैं और उपशम संम्यक्त्व ११वें गुणस्थान पर्यन्त पाया जाता है इस कारण उपशमसम्यक्त्व में साता असाता युगल के अबन्धकोंका अभाव कहा है।
१४६. अनाहारकोंमें– ५ ज्ञानावरण, ६ दर्शनावरण, मिध्यात्व, १६ कषाय, भय, जुगुप्सा, औदारिक, तैजस, कार्मण, वर्ण ४, अगुरुलघु ४, आतप, उद्योत, निर्माण, तीर्थंकर ५ अन्तरायोंके अनेक बन्धक हैं और अनेक अबन्धक हैं ।
विशेष – सयोगकेवली और अयोगकेवली गुणस्थानों में भी अनाहारक जीव होते हैं उन गुणस्थानों की अपेक्षा ज्ञानावरणादिके अवन्धक कहे गये हैं ।
सातावेदनीयके भी अनेक बन्धक तथा अनेक अबन्धक हैं । असातावेदनीयके भी अनेक बन्धक हैं तथा अनेक अबन्धक हैं। दोनों वेदनीयके भी अनेक बन्धक तथा अनेक अबन्धक हैं । इसी बीज से अर्थात् इस दृष्टिसे शेष प्रकृतियोंके भी भंग जानना चाहिए ।
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इस प्रकार नानाजीवोंकी अपेक्षा भंगविचय समाप्त हुआ ।
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