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[ अंतराणुगम-परूवणा ]
२४३. अंतरानुगमेण दुविहो णिद्देसो ओघेण आदेसेण य ।
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२४४. तत्थ ओघेण-पंचणा० णवदंस० मिच्छत्त० सोलसक० भयदु० आहारदुगं तेजाक० वण्ण०४ अगु०४ आदाउजो० णिमिण - तित्थयर - पंचंतराइगाणं बंधा - अनंधगा णत्थि अंतरं, निरंतरं । तिण्णि आयु० बंधगा जहणेण एगसमओ उक्कस्सेण चउव्वीसं हुतं । अबंधगा णत्थि । तिरिक्खायुबंधाबंधगा णत्थि अंतरं । चदुआयु बंधाअबंधगा णत्थि अंतरं । सेसविगप्पाणं बंधगा अबंधगा णत्थि अंतरं । एवं काजोगि ( 2 ) । २४५. ओघभंगो काजोगि ओर लियका जोगि भवसिद्धि- आहारगत्ति । णवरि भवसिद्धि० ।
[ अन्तरानुगम ]
[ अन्तर शब्द छिद्र, मध्य, विरह आदि अनेक अर्थोंका द्योतक है। यहाँ अन्तर शब्द विरहकालका द्योतक है । एक वस्तु अवस्थाविशेष में कुछ समय रहकर कुछ कालके लिए अवस्थान्तर रूप हो गयी और बाद में वह उस अवस्थाविशेषको पुनः प्राप्त हो गयी। इस मध्यवर्ती कालको अन्तर कहते हैं । यहाँ नाना जीवोंकी अपेक्षा वर्णन किया गया है । ]
२४३. यहाँ ओघ तथा आदेशकी अपेक्षा अन्तरका दो प्रकार से निर्देश करते हैं ।
२४४. ओघसे ५ ज्ञानावरण, ६ दर्शनावरण, मिथ्यात्व १६ कषाय, भय, जुगुप्सा, आहारकद्विक, तैजस-कार्मण, वर्ण ४, अगुरुलघु ४, आतप, उद्योत, निर्माण, तीर्थंकर और ५ अन्तरायोंके बन्धकों अबन्धकोंका अन्तर नहीं है, निरन्तर बन्ध है ।
विशेषार्थ - धवलाटीका में लिखा है “निर्गतमन्तरमस्माद्याशेरिति णिरंतरं”, जिस राशिमें अन्तरका अभाव है वह निरन्तर है । ' णत्थि अन्तरं ' - अन्तर नहीं है यह प्रसज्य प्रतिषेध हैं, क्योंकि यहाँ की प्रधानताका अभाव है। 'निरंतरं' निरन्तर हैं यह पर्युदास प्रतिषेध है. कारण यहाँ प्रतिषेधकी प्रधानता नहीं है । इस प्रकार प्रसज्य और पर्युदास रूप अभाव युगलका कथन किया गया है । ( खु० बं० अं० पृ० ४७१-४८० )
नरक - मनुष्य- देवायुके बन्धकों का जघन्यसे एक समय, उत्कृष्ट से २४ मुहूर्त अन्तर है । अबन्धक नहीं है । तिर्यंचायुके बन्धकों अबन्धकोंका अन्तर नहीं है । चार आयुके बन्धकों अबन्धकोंका अन्तर नहीं है । शेष प्रकृतियोंके बन्धकों अबन्धकोंका अन्तर नहीं है ।
२४५. काययोगी, औदारिक काययोगी, भव्यसिद्धिक तथा आहारकमें ओघकी तरह अन्तर जानना चाहिए। भव्यसिद्धिकों में विशेष जानना चाहिए ।
१. " अन्तरशब्दस्यानेकार्थवृत्ते रिछद्रमध्यवि रहेष्वन्यतमग्रहणम् । त० रा० पृ० ३० । “अन्तरमुच्छेदो विग्रहो परिणामान्तरगमणं णत्थित्तगमणं अष्णभावव्वहाणमिदि एयट्ठो ।" -ध० टी० अन्तरा० पृ० ३ ।
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